गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

एक पत्नी-पीड़ित की गुहार...पतिहित में जारी!(कुंवर जी)

आज मोबाइल पर एक बड़ा ही सुकून देता सन्देश प्राप्त हुआ!पढ़ कर लगा कि हमारी तरह कोई ओर भी है यहाँ!
जो भी था सोचा आप तक भी पहुंचा दूं.....




दोस्तों आज हम एक एक अजीब से प्राणी के बारे में पढेंगे...

प्रभु की इस अद्भुत कृति का नाम है "पत्नी"!

@ये अक्सर रसोई में या टीवी के आसपास पायी जाती है!
@इनका पौष्टिक और पसंदीदा आहार है..."पती का भेजा"!
@ये पानी कम "पती का खून" ज्यादा पीती है!
@इन्हें अक्सर नाराज होने का "नाटक" करते हुए देखा जा सकता है!
@इस प्राणी का सबसे खतरनाक हथियार हो "रोना" और "इमोशनली ब्लेकमेल" करना!
@इसके प्रभाव में रहने पर "तनाव" नाम की बिमारी हो सकती है जो लाइलाज होती है!
@और कोई सावधानी आपको इन से नहीं बचा सकती......
एक पत्नी-पीड़ित की गुहार...पतिहित में जारी!


आप सभी को नव वर्ष कि हार्दिक शुभकामनाये...
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

ये रात अँधेरी और सर्द तो जरुर है,पर क्या मेरे मन से भी ज्यादा...?(कुंवर जी)


ये रात अँधेरी और सर्द
तो जरुर है,
पर क्या मेरे मन से भी ज्यादा..?
जो
समेटे हुए है,
अंधड़ कितने ही,
कितने ही तुषाराघात सहे हुए है!
खुशियों के कितने ही सूरज
धुंधले-धुंधले से फिर रहे है
मेरे दुखो कि धुन्ध में!
जैसे भीख मांगते हो
कुछ पल को दिखने कि खातिर!
और आस के सूरज तो
फिर से नकलने की आस छोड़,
छिप ही चुके है!

ये रात अँधेरी और सर्द तो जरुर है,
पर क्या मेरे मन से भी ज्यादा...?


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

सब कुछ तो है.....(कुंवर जी)

सब कुछ तो है,
थोड़ी सी खुशिया,थोडा सुकून;
और थोडा सा चैन ही तो नहीं है!
और हाँ आस भी तो है!

सब कुछ तो है,
छोटी सी ज़िन्दगी,पाषाण सा तन,
और ये शिला सा स्थिर मन सब यही है!
और हाँ रुकी-रुकी सी सांस भी तो है!
देखा;सब कुछ तो है,





जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

‘मैं प्रेमचंद हूं, मुझ पर काफिर चस्पा करें।’ एक पाकिस्तानी की सनक पूरे पाकिस्तान को बदनाम कर रही है या पूरे पाकिस्तान की सोच यहाँ दिख रही है......पता नहीं!

 ये किसी नाटक का डाइलोग  नहीं बल्कि  पकिस्तान में एक हिन्दू के साथ मरणोपरांत किया गया भद्दा मजाक है... !
ऊपर दिए गए लिन्क में खबर विस्तार से दी गयी है!
पढने से साफ़ पता चल रहा है कि कुछ एक गन्दी सोच वालो की वजह से सारी कौम कैसे बदनाम हो सकती है,वे सारे प्रयास जो कि अमन,शान्ति को बढ़ावा देने वाले है....इन कु-कृत्यों के पीछे छिपे रह जाते है!एक पाकिस्तानी की सनक पूरे पाकिस्तान को बदनाम कर रही है या पूरे पाकिस्तान की सोच यहाँ दिख रही है......पता नहीं!

जो भी हो ये गलत तो है ही!क्या एक देश के नागरिक को ये ख्याल नहीं रखना चाहिए कि वो अपने देश कि गरीमा को ध्यान में रख कर ही कुछ कार्य करे,या फिर उसने इसी सोच के कारण ये काम किया,ये तो वो ही जाने!

ये एक खबर थी,पता नहीं इसके बाबत कुछ रोष या विरोध भारत सरकार के द्वारा दर्ज करवाया गया था या नहीं!शायद किसी मुस्लिम भाई के साथ ऐसी घटना हो जाती तो उच्च स्तर तक का पक्का विरोध दर्ज करवाया जाता,परइस बार वो बेचारा प्रेमचंद था ना.....तो शायद......

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

रविवार, 19 दिसंबर 2010

वो जो अपनों में पराया सा,गैरों में ख़ास क्यों है?

वो जो अपनों में पराया सा,
गैरों में ख़ास क्यों है?
सब जब पहले जैसा है तो
मन उदास क्यों है?
पलके गीली है और,
इन आँखों में प्यास क्यों है?
जीवन जीने के सपनो में,
खुद को मिटाने का भास क्यों है?
"हरदीप" आँखे खुल चुकी है,
फिर भी खुशियों की आस क्यों है?

जय हिन्द,जय श्रीराम.
कुंवर जी,


शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

क्या इसीलिए बनाया हमें भगवान् ने......??? (कुंवर जी)


बोलते-बोलते
रुक जाती है जुबाँ,
हाथ थम जाते है लिखते हुए,
दिमाग भी
सुन्न सा हो जाता है जब,
सोचता है
कि
बनाने वाले ने
बनाया है
हमें,
बस उसे पूरा
या
सिद्ध करने के लिए
जो उसने कभी
ना जाने कब
      लिख दिया था....

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

अरे सब-कुछ है; बस ये भ्रम रहे......(कुंवर जी)

मै ये नहीं कहता कि हमारी मुलाक़ात हो,
हर रोज हर पल हमारी ही बात हो,
तमन्ना बस इतनी सी है कि जब दूर हो तो,
थोड़ी सी हमारी याद और थोड़े से ज़ज्बात हो!

किसने कहा कि आँखे नम रहे,
इस ज़िन्दगी से खफा  हरदम रहे,
सब-कुछ हो ये जरुरी तो नहीं यहाँ,
अरे सब-कुछ है; बस ये भ्रम रहे!



 जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

बचकानी फ़रियाद......(कुंवर जी)

कुछ

नयी बात
करनी चाही तो
सब पुरानी बातें याद आई,
चलने
लगे तो
ज़ेहन में फिर
मिलने वाली
बचकानी फ़रियाद आई!

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

ज़ख्म देख कर भी कोई सहलाता नहीं है,,,,(कुँवर जी)

ज़ख्म देख कर भी कोई सहलाता नहीं है,
नमक डालते है,इलाज़ कोई बताता नहीं है!

आँखों में आंसूं देख आँखे झुकाते मिले सब,
हौसला बढाने को भी तो कोई मुस्कुराता नहीं है!

चौराहे तक तो खूब साथ निभाया गया,
अब गलत-ठीक ही सही,राह कोई बताता नहीं है!

उनकी जरुरत के हिसाब से तो रिश्ते बहुत बने,
अपनी बारी आई,नया-पुराना कोई रिश्ता निभाता नहीं है!

चलो किसी का अच्छा किया ही नहीं हमने,
फिर सोचा,हँसे;बुरा किया हो ये भी तो याद आता नहीं है!


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

जूझते है हम....और जुझारू वो है???...(कुंवर जी)

जिनको हमने अपना नेता बनाया
वो ही दुश्मन हुए हमारे,
हम उनको और
वो कुर्सी को पूजते रहे,
अब उनकी तिजोरिया है
कि भरती ही जा रही है,
और हम वैसे ही पहले की तरह
दो वक़्त की रोटी को ही जूझते रहे!
जूझते है हम
जिन्दंगी से जिन्दगी भर
और जुझारू वो है
बस हम तो
इस पहेली को ही
बूझते रहे!

जय हिन्द,जय श्रीराम
कुंवर जी,

रविवार, 28 नवंबर 2010

मेरी पहली कविता .....मै भी चाहूँ तू भी चाहे!...(कुंवर जी)

कभी-कभी जीवन में ऐसे पल आते है जिनमे हम कुछ भी नहीं कर पाते,और ये कुछ ना कर पाना ही बहुत कुछ कर जाता है!डिप्लोमा करते समय  3 वर्ष छात्रावास में व्यतीत किये थे!पहला अवसर था जब माँ के आँचल के तले से निकल कर कहीं बहार रहे थे!
तब पहला अवसर था जब किसी से दिल से जिदाव महसूस करने लगे थे!उसी दौरान एक मित्र जो काफी करीब हो गया दिल के, के साथ किसी बात पर असमंजस के साथ बोल-चाल बंद हो गयी!अब प्रत्यक्ष बोल-चाल तो बंद थी पर हम दोनों ही हमेशा ही साथ भी रहते थे और पास भी रहते थे,पर बातें नहीं होती थी!समझते तो थे दोनों एक-दुसरे को पर जो बात हो चुकी थी उसके कारण दोनों में से कोई भी बोलने की शुरुआत नहीं कर पा रहा था!वो समय भी बहुत ही स्मरणीय व्यतीत हुआ!इसी समय मेरे द्वारा पहली कविता लिखी गयी!मेरी पहली कविता आज आपके समक्ष है!

आप भी महसूस करे कि तक क्या-क्या और कैसे-कैसे गुजर रही थी हम पर......

कुछ ना कह के सब कुछ कहना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!

साथ रहना साथ पढना,
साथ खाना,साथ खेलना,
पर अनजानो  की तरह ही साथ जीना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!



ना बोलूं ना तू पुकारे,
तू मुझे बस देख जरा रे,
इस बात को कोई ना समझा रे,
इस दोस्ती को हम कैसे नकारे,
पास रह कर भी चुप रहना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!



ये दोस्ती भी क्या-क्या रंग दिखाती,
पहले तो शीशे और पत्थर को पास बुलाती,
पत्थर को करती बदनाम,शीशे को रुलाती,
रो-रो कर अकेला महफ़िल में हँसना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!


पत्थर की फितरत को तो खुदा ने ऐसा ही बनाया,
जिसको,जैसे भी मिला उसी को रुलाया,

यूँ ही पत्थर और शीशा बन के रहना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!



जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,


शनिवार, 27 नवंबर 2010

किस रंज के सायें में उल्लास है!



क्यों आज  आस ही   उदास है,
किस रंज के सायें में उल्लास है!

कर के मंथन कोई खुद ही,
कालकूट पीने का सा भास है!

दिल का दर्द यही  था बस,
या उसे छिपाने का ही ये प्रयास है!

बात छोटी हो या बड़ी,
भला क्यों ये अकेलेपन का एहसास है!

जय हिन्द,जय श्री राम,
कुंवर जी,

बुधवार, 24 नवंबर 2010

खुशियाँ लौट आती है,.....(कुंवर जी)

पता है,
खुशियाँ लौट आती है,
हमें थोडा सा तडपाती है,
थोडा तरसाती है,
पर हमारे बिना रह भी तो नहीं पाती है!
तो वापस लौट आती है!

फितरत नहीं है ना उनकी कहीं रुक जाना एक जगह ,
हर किसी से मिलने की  खातिर,
वो हमसे दूर चली जाती है!
पर वो रूठती थोड़े ही है हमसे,
थोड़ी अपनी याद दिलाती है,
थोडा सा हमारा मज़ाक उडाती है,
और
हम पर हंसती हुई फिर लौट आती है!

ज़िन्दगी जो रास्ता है तो मोड़ तो आयेंगे ही,
जो खेल तो जीत-हार सही,खुशियाँ भी हमें चलाती है!
थोड़ी सी खेलती हमारे साथ,
कभी जिताती कभी हराती है,
हर मोड़ के पार बुलाती है.
थोड़ी देर में ही सही
पर खुशियाँ लौट आती है!


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,


सोमवार, 22 नवंबर 2010

`अब आंसुओ में कोई रंग आता ही नहीं!..........(Kunwar ji)..

पिछले  कुछ दिन या पिछला एक-दो महीना ब्लॉग से दूर सा ही रहा,कल तक तो इतना अफ़सोस नहीं हो रहा था पर कल रोहतक में जब मै अपने परिवार से पहली बार रूबरू हुआ तो लगा जैसे ये समय कैसे बर्बाद कर दिया मैंने....

लगा जैसे लड़की अपने ससुराल से मैके में आई हो पता नहीं कितने दिनों के बाद....
लेकिन वहा जाने से मन कि उत्कंठा को तो बल मिल गया पर समय का सहारा उन्हें अब भी नहीं मिल पा रहा है!उसी के अभाव में आज बस ये पंक्तियाँ ही आपके लिए....और चेष्टा रहेगी कि निरन्तर अपने परिवार का प्यार मै पाता रहूँ...

 अपने जीवन के सारे रंग
उड़ेल दिए मैंने शब्दों के चित्र बनाने में...

अब आंसुओ में कोई रंग आता ही नहीं!


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

बिखरे पन्ने.......(कुंवर जी)

यादों से लड़ना हो या उनसे खेलना......दोनों ही हमें किसी ओर दुनिया में पहुंचा देते है!कभी गिरते है हम कभी खुद ही तन जाते है.....खामोश बैठे-बैठे यूँही अचानक मुस्कुराते है.....और तो क्या ख़ाक समझेंगे जब हम ही कुछ समझ नहीं पाते है!


और जब यादे उन पुराने मित्रो की हो जो कभी एक जान रहे हो,और अभी आस-पास भी ना हो तो.......
बस वो सब महसूस करने वाला होता है!कुछ-कुछ बताने के लिए कुछ लिख छोड़ा था कभी....आज आप सभी के समक्ष है.....




एक किताब की सिलाई उधड़ने पर जैसे
बिखरते है उसके पन्ने,
जानकारी जो होती थी कभी पूरी
रह जाती है आधी-अधूरी,
और फिर चलता है दौर लम्बा एक
पन्नो के फड़फड़ाने का,
कोई कहीं उड़ चला जाता है संग हवा के
कोई अटक जाता है कहीं!
न कोई सुनता है न ही समझता है तो
क्या फायदा उनके यूँ  फड़फड़ाने  का!
कभी गुजर जाते बिलकुल पास से
गुजर जाते,बनी रहती फिर भी उनमे दुरी!
फिर कभी वो किताब नहीं बनते दुबारा
रहते है यूँ ही बिखरे पन्ने!
जैसे हम........




जय हिन्द,जय श्रीराम,
(कुंवर जी)

रविवार, 19 सितंबर 2010

अब कैसे मेरे भ्रमो का निवारण हो........?????

मानव मन की प्रकृति है या मेरे मन का कोई षड़यंत्र है मुझे नहीं पता!जब भी मै कुछ सोचता हूँ तो किसी भी नतीजे पर स्पष्ट नहीं पहुँच पाता हूँ!
आरम्भ आवेश से कर के अन्त को जूझता हूँ,
जब कुछ सुलझा नहीं पाता तो खुद पहेली बना उन्हें ही बूझता हूँ!

समय ही नहीं मिल रहा है आप सब से निरन्तर मिलते रहने का !जब कभी भी समय मिलता है तो जो कुछ पहले लिखा गया होता है उसे पढ़ कर ही संतुष्ट होने की कोशिश करता रहता हूँ!पर ये संतुष्टि..........पता नहीं कब और कैसे मिलेगी...???


जहाँ मै रूक जाता हूँ,या मेरा मस्तिष्क कुछ भी कहने-करने से मना कर देता है;आज कुछ ऐसा ही आप सब सुधिजनो के बीच प्रस्तुत है कृप्या अपने ज्ञान और अनुभव की यहाँ बरसात करें......जिस से मुझ अयोग्य को कुछ योग्य बाते पता चले!


वो शब्द क्या हो जिसका ही बस उच्चारण हो,
साधना का भी तो कोई साधन हो,
भेद करने का भी तो कोई कारण हो,
अद्वैत तो समझू जो कोई समक्ष उदाहरण हो,
अब कैसे मेरे भ्रमो का निवारण हो........?????

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

आदमी कि क्या कीमत है......?(कुंवर जी)

अभी थोड़ी देर पहले ही मेरे एक मित्र ने बातों-बातों में पूछा कि आदमी कि क्या कीमत है,क्या महत्ता है?बात थी,बातों-बातों में ही आई-गयी सी हो गयी!अब वो भाईसहाब तो मजे से सो रहे है और हम है कि इसी बात पर खुद से उलझे हुए है!

सर्वप्रथम तो हम इस "कीमत" शब्द पर अटक गए,भला क्या मूल्य लगाए आदमी का यदि वो "आदमी" ही है तो?फिर आजकल "आदमी" मिलते ही कितने और कहाँ है?फिर ये महत्ता,अब किसकी किसके लिए महत्ता?इन सब चीजों किस आधार पर नापा-तौला जाए?

कुछ नहीं सूझ रहा है हमें अभी,नींद भी बेचारी बहार खड़ी-खड़ी अन्दर आने कि बाट  जोह रही है!सो उसकी ही खातिर हमें अभी ये बातें आपके हवाले कर बिस्तर की ओर कूच कर जाना चाहिए,नहीं तो नींद बेचारी बहार ही खड़ी रह जायेगी सारी रात!

मै आशा करता हूँ कि सुधिजन मुझे समझने और समझाने का भरपूर प्रयास करेंगे!अभी तो सौओ और सोने दो.....

जय हिन्द,जय श्री राम!
कुंवर जी,

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

भावनाए जब बहती है मन में.....(कुंवर जी)

भावनाए जब बहती है
मन में....
ना जाने क्या-क्या कह जाना चाहती है....
खुद मचलती है,
हमें मचलाती है,
बादलो सी उमड़-घुमड़ आती है......
बारिश सी बरसना चाहती है.....
किसी सींप में समां मोती होने का मन करता है....
कभी किसी चकवे की प्यास को बुझाना चाहती है....
भावनाए जब बहती है मन में....


पर खो जाती है मन सागर में किसी लहर की ज्यूँ...
कोई अनजान भंवर रेगिस्तान में जैसे,
मन में उठती है और मन ही में मर जाती है...
या कभी-कभी बन आंसू खुद अपनी मौत सहती है...
कभी कोई अधूरा चित्र बन अपनी लाचारी कहती है...
या कभी-कभी पाकर कलम का सहारा कविता बन इतराती है...
भावनाए जब बहती है मन में...


और अब ये क्या नयी चाल इनकी...
जग सारा जिसे पढता है....
कोई वाह करता-कोई आह भरता....
और मन की पहचान इन्हें सब कहते है....
कविता सा जिसे सब समझते है....
वो तो असल कविता थी ही नहीं...


जो मन की भावनाओं को समेटे,सहेजे
लज्जा और प्रसन्नता के जैसे....
कविता बन दुल्हन सी सजती संवरती है...
वो तो मन ही में रह जाती है....
वहीँ इठलाती है,वहीँ शरमाती है....
भावनाए जब बहती है मन में.....

जय हिन्द,जय श्री राम,
कुंवर जी,

रविवार, 29 अगस्त 2010

वो रिश्ता......(कविता)...कुंवर जी!

वो रिश्ता......
वो रिश्ता जो अनजान था,अनाम था,
गैरजरूरी सा और बेकाम था,
वो बे-मुकाम और बे-आयाम था,
हम उस रिश्ते में या वो हम में तमाम था!
हमें कुछ भी पता नहीं करना था!

श्रद्धा,समर्पण और बस एक विश्वाश था,
बिना किये जो हुआ वो एक प्रयास था,
देखो सच्चा होकर भी बस एक कयास था,
वो रिश्ता तो आम पर उसमे जरूर कुछ ख़ास था!
सच में हमें कुछ भी पता नहीं करना था!

लगता है अब भी बात अधूरी ही कह पाये है,
सोच मेरी नहीं तो क्या कोई अरमान पराये है,
या कोई सपन-सलोने है जो बस हमीं ने सजाये है,
इतनी बातो के बाद भी अब ये ख्याल कहाँ से आये है,
कुछ भी हो हमें कुछ भी पता नहीं करना है!




जय हिन्द,जय श्री राम,
कुंवर जी,

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

या फिर...

आप सब से जो प्यार मुझे मिल रहा है उसको मै कभी भी स्वयं से दूर नहीं मानता,बस मलाल इस बात का रहता है कि मै आपको यथोचित रूप से  यह सूचित नहीं कर पा  रहा हूँ!एक अघोषित सी जो दूरी बनी हुई है प्रत्यक्ष में वो अप्रत्यक्ष में कहीं भी नहीं है......!इस निरन्तर मिल रहे  आशीर्वाद के लिए आप सभी का आभार है जी.....

आज फिर आप के समक्ष प्रस्तुत है एक  विचारों ऐसी कड़ी जिसे सब कविता कहलवाना पसंद करते है........ 

जो चल दे हम
एक ही राह पर कभी,
साथ-साथ ना साही
आस-पास ही सही!
या फिर...


साथ हो ले हम
चलते-चलते,
थोड़ी देर के लिए ही सही!
या फिर...


साथ हमारा राह की तरह
लम्बा होता चला जाए,
ना कोई मंजिल,
ना कोई मोड़ आये
और चलते रहे हम
साथ-साथ!
आस-पास नहीं'
साथ-साथ!
या फिर...


हम बैठ जाएँ थक कर
और तुम रख लो सर मेरा
अपनी गोदी में,
मेरे कहने पर!
या फिर...


तुम खुद ही कह दो कि
ओढ़ लो जुल्फों को मेरी
धुप से बचने की खातिर!
भले ही हम थके ही ना हो,
तब भी!
मै कहूं और तुम
उंगलियाँ फेरती रहो
बालो में मेरे!
और मै ना उठना चाहूँ,
ना वहा से चलना!
या फिर...


तुम ही कह दो कि
यही तो मंजिल थी हमारी
अब और कहाँ जाएँ!



ये सब सोचने से
फुर्सत मिले तो
शायद...
शायद मै सो भी जाऊं,
और,
ये सब सपने पाऊं!
या फिर...


एक रात और गुजर जायेगी
यूँ ही पलके झपकाते हुए....




जय हिन्द,
जय श्री राम,
कुंवर जी,

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

शब्दों में जो धार हो तो कलम कम नहीं तलवार से....(कुंवर जी)

प्रारब्ध का दुश्चक्र ऐसा चला कि हमें कम्पनी में अपनी फ्री इन्टरनेट वाली सीट से हाथ धोना पड़ गया है......ये बात कोई मायने नहीं रखती कि हमारी कागजो में थोड़ी सी तरक्की हो गयी है......और पता नहीं कैफे वालो को भी इसकी भनक कैसे लग गयी.....?उन्होंने भी अपने रेट दस को बढाकर पंद्रह/प्रति घंटा  कर दिया है...!

मै बस यही कहना चाहूँगा कि ये एक शरीफ,आम,और नीरीह ब्लॉगर के साथ अन्याय हुआ ओर हम इसके खिलाफ कुछ कर भी नहीं सकते.....
एक षड्यंत्र जो हमारे विरुद्ध रचा गया था और जिसमे सब(कंपनी से लेकर कैफे वाले तक) शामिल थे,वो सफल रहा......और  हम इसे प्रारब्ध मान कर खुद को संतोष देने की चेष्टा कर रहे है....

आज फिर एक पुरानी रचना जिसे दिलीप भाई साहब की एक ओजपूर्ण कविता पर टिप्पणी स्वरूप शुरू किया गया था आपके समक्ष है.....नया कुछ लिखने का तो समय ही नहीं मिल पा रहा है....




शब्दों में जो धार हो तो कलम कम नहीं तलवार से,
आँखों में आंसूं हो गर स्वाभिमान के कम नहीं अंगार से,

मरना बेहतर लगता है.
भीरूओ की भान्ति जीने से
मरना हल नहीं,
दुनिया चली गयी
नहीं किसी के पसीने से,
सहानुभूति के लिए ही जीना बस,कम नहीं धिक्कार से,
कम से कम आत्मा को तो दूर रखो किसी विकार से!

अरे गर आंसू आ गया तो
कोई गुनाह नहीं हुआ था,
वो पल तो कब का चला गया,
जिसको तुमने छुआ था,
जो तुम्हे अब रुला रहा क्या वो निकालेगा तुम्हे इस अन्धकार से?
भाग्य में जो तुम्हारा है क्यों नहीं लेते उसे अपने अधिकार से!


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

रविवार, 11 जुलाई 2010

जो भी कहा वो बस बेमानी था......(कुंवर जी)

जो भी सहा वो सब रूहानी था....
जो भी कहा वो बस बेमानी था...

कुछ दुविधा,कुछ दुर्भाग्य,
और कुछ आँख का पानी था!


लिखा पड़ा था पहले से ही कहीं,
और लगा कि हमारी ही मनमानी था!


यूँ जीते जी मरना और तड़पना,
क्या इसी का नाम जिंदगानी था!

चाहता हूँ पर कह नहीं पाता हूँ,
और मौन भी तो मौत अनजानी था!



क्या तुम्हे भी आप-बीती सी लगी,
जो कुछ भी ये मेरी जुबानी था!

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कौन कहता है कि दफनाने के बाद जलाया नहीं जाता....

वो आते है
कब्र पर मेरी
अपने हमसफ़र के साथ....
कौन कहता है
कि
दफनाने के बाद
जलाया नहीं जाता....


(एक सन्देश आया था मोबाईल पर.....बहुत अच्छा लगा तो सोचा आप तक भी पहुंचा दूं.....)


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

शनिवार, 3 जुलाई 2010

एक कविता प्यार के विरह में

"प्यार " बस ये ढाई शब्द बहुत हैं , जीवन को रस से भरने के या फिर नीरस करने के . सच्चा प्यार जब किसी से होता है तो ऐसा लगता है कि इस लड़की के पास आने पर संगीत बज उठता है . प्यार पर कुछ लिखना अपने आप में अद्वितीय होता है . आशा है आपको मेरी ये नयी थीम पसंद आएगी . सब कुछ सच्चाई है झूठ या कल्पना नहीं .  उसके बिछड़ने के एहसास आज तक बिलकुल ताजा है . अनुभूति इतनी कि सैंकड़ो कविताये लिखी जा सके . तो मैं शुरू करता हूँ उसके प्यार को समर्पित :-

सांसो में आज तक उसकी रूह समायी है 
सारा जग मेरे साथ फिर भी क्यों तन्हाई है 

सितारों से उसकी मांग सजाने का जब सपना जगा था 
हाथ मेरे कलम करने को कोई अपना ही लगा था

किसी तरह उस गुलाबी रंगत वाली को पाना था 
आखिरी कदम पर बिछड़ जाना एक फ़साना था 

सच्चे प्यार में ही ईश्वर दिख गया था 
ख़ुशी मेरी सारी  उसके  नाम लिख गया था 

दर्द उसका दिल में लिए जीना श्राप हो गया था 
लोग कर गए पर मेरा कहना भी पाप हो गया था 

उसकी चाहत में दुनिया के रस्मे तोड़ ली थी 
पर उसने बाद में मुझसे राहे क्यों मोड़ ली थी 

मेरे सवालो के जवाब उसकी आत्मा से मांगता हूँ 
बस मेरी गलती बता दे पर मैं जवाब जानता हूँ 

उसकी दीवानगी  क्यों मुझे हंसाकर रुला गयी 
बची सारी जिन्दगी में तड़पना सिखा गयी 

बस वो मेरे शब्दों की सच्चाई पर तो जाये 
आखिरी साँस पर हूँ संजीवनी तो लाये 

फिर भी उससे शिकवा नहीं क्या पता वो मजबूर हो 
कृष्ण और राधा के ना मिलने का कोई दस्तूर हो 

कमल जैसे कीचड में खिलकर बस यु ही फना होता है 
भरे समन्दर ऐसे ही " हरदीप " जलकर आपसे विदा होता है .

धन्यवाद ,

मै सोचता हूँ कि.......(कुंवर जी)

पिछले कई दिनों से मै वो समय नहीं निकाल पा रहा हूँ जिसे कुछ दिनो पहले तक मै अपना सबसे अनिवार्य समय मानने लगा था....विवशताएँ कहे या कुछ ओर इस पर अभी शोध कार्य चल रहे है.....मै सोच रहा हूँ कि जब तक प्रयोग सफल हो तब तक आपको एक ऐसे लड़के का किस्सा सुनाँ दूं जो मेरी ही तरह सोचता बहुत था.......पर कभी-कभी मुझ से अलग कुछ कर भी देता था.....

कभी मैंने सुना था....आज आप झेले..... 

..........एक कक्षा में किसी अध्यापक को कक्षा में ही लड्डू खाने कि तलब हो आई!लड्डू थे नहीं सो बहार दुकान से मंगवाने कि सोच ली!उसने कक्षा में दृष्टि दौड़ाई तो जो लड़का सबसे शांत दिखाई दिया उसको ही 5 रुपये दे दिए लड्डू लाने के लिए!अब जो बहुत सोचता है वो स्वाभाविक ही शांत तो होता ही है!

उस लड़के ने वो 5 रुपये दुकानदार को दिए और बोला लड्डू दे दो!दुकानदार ने लड्डू तोले,पहले तराजू में 5 रखे जब देखा के ज्यादा है तो एक निकाला!ठीक थे दे दिए!वो लड़का भी ले कर चल दिया,और शुरू हो गया उसके सोचने का सिलसिला!


उसने सोचा जब दुकानदार 5 रख कर एक वापस उठा सकता है तो वो तो मै भी 4 में से एक तो उठा ही सकता हूँ,मास्टर जी देख थोड़े ही रहे है!एक उठाया और खा गया!


बीच राह में एक बड़ा नाला था,उसे कूदने लगा तो एक लड्डू गिरते-गिरते बच गया!उसने फिर सोचा,"गिर भी तो सकता था"! एक और खा गया!


जैसे ही विद्यालय में प्रवेश किया,फिर सोचा!उसने सोचा के मै इतनी मेहनत कर के लड्डू ला रहा हूँ,कम से कम एक तो मिलेगा मुझे भी!क्यों मास्टर जी का समय नष्ट किया,सोचा बता दूंगा और खा गया!


अब जो एक बचा था उसे ही अखबार में बहुत अच्छी तरह से लपेट-सपेट कर रख दिया मास्टर जी के सामने!मास्टर जी 5 रुपये का एक लड्डू पाकर हैरान,परेशान!


उस शांत बच्चे से बड़ी शान्ति से पूछा- "5 का एक ही?"


वो बोला- "नहीं; थे तो ज्यादा यहाँ तक एक ही पहुँच पाया!"


मास्टर जी-थोडा सा सख्त हो कर-"कैसे????"


लड़का-"जी दूकानदार ने 4 रखे फिर एक उठा लिया,रह गए तीन!"


मास्टर जी- "वो तीन कहा गए ?"


लड़का-"जी एक लड्डू नाला कूदते हूए नाले में गिर गया!रह गए दो!"


मास्टर जी थोडा सा और गंभीर होते हूए- ये तो दो भी नहीं, ये कैसे???


लड़का बड़ी ही स्वाभाविक सी मासूमियत के साथ- "मैंने सोचा मै इतनी मेहनत कर के लड्डू ला रहा हूँ,कम से कम एक तो मिलेगा मुझे भी!क्यों मास्टर जी का समय नष्ट किया,सोचा बता दूंगा और खा गया!


मास्टर जी फुल्ली आग-बबूला होते हूए- "हरामजादे! मेरा लड्डू तू कैसे खा गया??"


उस लड़के ने वो लड्डू उठाया और मुह में रक्खा और खा गया,बोला-"जी ऐसे खा गया!"


मास्टर जी देखते रहे और वो जो एक लड्डू जैसे-कैसे भी आया था, वो भी उन्हें नसीब न हूआ!






मै सोचता हूँ कि........


मै केवल सोचता ही हूँ,करता नहीं हूँ ये भी ठीक ही है!


यदि वो लड़का मेरी तरह केवल सोचता ही,करता नहीं तो मास्टर जी को उनके सारे लड्डू मिल ही जाते!
{पुनः प्रकाशित}
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

मंगलवार, 29 जून 2010

उदास हो के मै क्या पाऊंगा.......?

उदास हो के मै क्या पाऊंगा?
दूर हूँ,पास हो के मै क्या पाऊंगा?


हाँ,अँधेरा बन के गुम हूँ मै,
होते ही जो बिखर जाए
वो प्रकाश हो के मै क्या पाऊंगा?


तारे कि तरह टूट गया,सही है ये भी,
जो कभी पूरी ना हो पाए
वो आस हो के मै क्या पाऊंगा?


चलो वहम ही बना रहूँ मै दिल में तुम्हारे,
जो इक पल भी ना टिक पायें
वो विशवास हो के मै क्या पाऊंगा?


नाकाम ही सही एक पहचान तो है,
जो कभी किया ही ना जाए
वो प्रयास हो के मै क्या पाऊंगा?


देखा नहीं तुमने मुझे शुक्र है,
जो महसूस ही ना किया जाए
वो आभास हो के मै क्या पाऊंगा?


आम ही समझना मुझे तुम सदा
जो सम्भाला ही ना जाए
वो ख़ास हो के मै क्या पाऊंगा?


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

शुक्रवार, 25 जून 2010

हमारी ऐसी कौन सी मज़बूरी है जो आज़ादी सिर्फ विकारों को ही मानते जा रहे है!

आजकल
 अमित भाई साहब के लेखो पर गरमागरम बहस सी चली हुई है!उन्ही की एक पोस्ट पर टिप्पणी लिखने लगा तो ये लिखा गया...... उन्होंने कहा...
".....लेकिन  विकारों को आजादी का नाम देकर जिस तरह से अपनाये जाने की घिनोनी भेडचाल मची उससे सारा ढांचा ही भरभरा रहा है...." 


तो इस पर मेरे विचार कुछ यूँ थे....
इस बात से तो कोई भी असहमत नहीं होगा!असल बहस का मुद्दा भी यही होना चाहिए!क्यों हम विकारों को आज़ादी का नाम देने पर तुले हुए है!

श्रेष्ठ कौन है? इसका उत्तर हम किस से ले रहे है और किसे दे रहे है?भगवान् श्री ने अर्धनारीश्वर का रूप सम्भवतः इसी असमंजस के नाश के लिए ही धरा होगा,पर हम जब भगवान् के इशारों को भी अनदेखा कर रहे है तो भला किसी ओर के बताने से तो क्या समझेंगे!
हमारी ऐसी कौन सी मज़बूरी है जो आज़ादी सिर्फ विकारों को ही मानते जा रहे है!क्या सच में कोई पीड़ित वर्ग है जो आज़ाद हो ही जाना चाहिए,या फिर यह कोई मानसिक विकृता भर है!मुझे लगता है हमें ऐसे विकारों से आज़ादी की जरुरत है!

हम ब्लॉग लिख-पढ़ रहे है तो स्वभावतः ही बुद्धिजीवी तो होने ही चाहिए.....और बुद्धिजीवियों में असहमति हो जाए किसी बात पर तो इस से भी सकारात्मक परिणाम ही आने चाहिए!एक सार्थक,निष्पक्ष और निर्णायक बहस के रूप में!लेकिन इसका अर्थ ये नहीं की यदि आपने मेरी बात नहीं मानी तो मै आपके प्रति कटुता पाल लूँ,और एक निरर्थक बहस को जन्म दे दूँ!


हमें कम से कम अपने प्रति जिम्मेवार तो होना ही चाहिए!और मेरे हिसाब से जो अपनी जिम्मेवारी को इमानदारी से निभा रहा है वो ही श्रेष्ठ है अब चाहे वो पुरुष है या नारी,ये महत्त्व नहीं रखता!इसे भी मुझे ऐसा कहना चाहिए कि "अपनी जगह" वो श्रेष्ठ है!

फिर से मुद्दे पर आते है....

क्या हमारी वर्तमान शिक्षा हमें ये सोचने पर विवश कर रही कि जो परंपरा या संस्कृति हमारी पिछली पीढ़ी ने निभायी वो एक ग़ुलामी और दकियानूसी के सिवाय कुछ नहीं...?

क्या वो संस्कृति या परम्परा असल में ही वैसी ही है जैसा कि नयी पौध के कुछ पौधे उसे समझ रहे है?यदि नहीं तो क्यों उसने उन्हें अपने में नहीं ढाला?

क्या हम खुद इतने संस्कारित नहीं रहे है कि आने वाली पीढ़ी तक उन संस्कारों को पहुंचा सके?

जहाँ तक मै अपनी बात करूँ तो स्थिति ये है कि वैसे तो मै उन संस्कारों को,परम्पराओं को अपने मन में सहेजे हुए हों,और दैनिक जीवन में उनका सहारा भी लेता रहता हूँ!पर कई बार मन में आ जाता है कि थोडा सा इन के बिना भी आचरण हो जाए तो कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा और एक-आध बार मै ऐसा कर भी डालता हूँ!तो क्या ये एक-आध बार करने कि प्रवृत्ति ही बड़ा कारण बन सकती है भविष्य में.....?

अब मै अपने माता-पिता और घर की बात करूँ तो वो एक पुरानी सोच वाला परिवार ही है!उन्हें मेरा अथवा मेरे अन्य भाइयो का शाम होते ही घर में होना पसंद है!हालांकि मै कई बार सोचता हूँ कि हमारी वजह से कोई भी,कैसा भी उल्हाना अब तक नहीं आया सो हमें थोड़ी बहुत छूट मिलनी चाहिए पर अन्त में उनकी बात ही ठीक लगती है...जब किसी पर अकारण ही बुराई आती दिखती है तो....!इस पर भी हमारी जितनी बहने है उनमे से जिसने भी पढने की इच्छा जताई है उन्होंने स्नातक तक पढ़ाई की ही है,उस से ऊपर भी पढ़ी है,तो यहाँ कोई बंधन भी दिखाई नहीं देता!

अब मैंने अपनी बात आपके समक्ष रखी...मै आशा करता हूँ कि आप भी एक बार अपना आंकलन इस हिसाब से जरूर करेंगे,यदि योग्य समझे तो उस आत्म-मंथन से हमें भी अवगत कराये....!
आप सभी शुभकामाए स्वीकार करे...

जय हिन्द.जय श्री राम,
कुंवर जी,

बुधवार, 23 जून 2010

जीवन में कोई रहस्य है ही नहीं.......!


आज कुछ ओशो की बातो पर चर्चा हो जाए!उनका मनोविज्ञान अनूठा था,थोडा अलग था,थोडा अजीब सा भी था,पर गहरा था!देखिये जीवन के रहस्य के बारे में वो क्या कहते है....और तत्पश्चात आप क्या कहते है वो भी बताने की कृपा करे......

"जीवन में कोई रहस्य है ही नहीं। या तुम कह सकते हो कि जीवन खुला रहस्य है। सब कुछ उपलब्ध है, कुछ भी छिपा नहीं है। तुम्हारे पास देखने की आँख भर होनी चाहिए।
पर यह ऐसा ही है जैसी कि अंधा आदमी पूछे कि 'मैं प्रकाश के रहस्य जानना चाहता हूँ।' उसे इतना ही चाहिए कि वह अपनी आँखों का इलाज करवाए ताकि वह प्रकाश देख सके। प्रकाश उपलब्ध है, यह रहस्य नहीं है। लेकिन वह अंधा है- उसके लिए कोई प्रकाश नहीं है। प्रकाश के बारे में क्या कहें? उसके लिए तो अँधेरा भी नहीं है- क्योंकि अँधेरे को देखने के लिए भी आँखों की जरूरत होती है।


एक अंधा आदमी अँधेरा नहीं देख सकता। यदि तुम अँधेरा देख सकते हो तो तुम प्रकाश भी देख सकते हो, ये एक सिक्के के दो पहलू हैं। अंधा आदमी न तो अँधेरे के बारे में कुछ जानता है न ही प्रकाश के बारे में ही। अब वह प्रकाश के रहस्य जानना चाहता है। अब हम उसकी मदद कर सकते हैं उसकी आँखों का ऑपरेशन करके। प्रकाश के बारे में बड़ी-बड़ी बातें कह कर नहीं- वे अर्थहीन होंगी!


जिस क्षण अहंकार बिदा हो जाता है, उसी क्षण सारे रहस्य खुल जाते हैं। जीवन बंद मुट्ठी की तरह नहीं है, यह तो खुला हाथ है। लेकिन लोग इस बात का मजा लेते हैं कि जीवन एक रहस्य है- छुपा रहस्य। अपने अँधेपन को छुपाने के लिए उन्होंने यह तरीका निकाला है कि छुपे रहस्य हैं कि गुह्य रहस्य है जो सभी के लिए उपलब्ध नहीं हैं, या वे ही महान लोग इन्हें जान सकते हैं जो तिब्बत में या हिमालय में रहते हैं, या वे जो अपने शरीर में नहीं हैं, जो अपने सूक्ष्म शरीर में रहते हैं और अपने चुने हुए लोगों को ही दिखाई देते हैं।
और इसी तरह की कई नासमझियाँ सदियों से बताई जा रयही है सिर्फ इस कारण से कि तुम उस तथ्य को देखने से बच सको कि तुम अंधे हो। यह कहने की जगह कि 'मैं अंधा हूँ', तुम कहते हो, 'जीवन के रहस्य बहुत छुपे हैं, वे सहजता से उपलब्ध नहीं हैं। तुम्हें बहुत बड़ी दीक्षा की जरूरत होती है।'
जीवन किसी भी तरह से गुह्य रहस्य नहीं है। यह हर पेड़-पौधे के एक-दूसरे पत्ते पर लिखा है, सागर की एक-एक लहर पर लिखा है। सूरज की हर किरण में यह समाया है- चारों तरफ जीवन के हर खूबसूरत आयाम में। और जीवन तुम से डरता नहीं है, इसलिए उसे छुपने की जरूरत ही क्या है? सच तो यह है कि तुम छुप रहे हो, लगातार स्वयं को छुपा रहे हो। जीवन के सामने अपने को बंद कर रहे हो क्योंकि तुम जीवन से डरते हो।


तुम जीने से डरते हो- क्योंकि जीवन को हर पल मृत्यु की जरूरत होती है। हर क्षण अतीत के प्रति मरना होता है। यह जीवन की बहुत बड़ी जरूरत है- यदि तुम समझ सको कि अतीत अब कहीं नहीं है। इसके बाहर हो जाओ, बाहर हो जाओ! यह समाप्त हो चुका है। अध्याय को बंद करो, इसे ढोये मत जाओ! और तब जीवन तुम्हें उपलब्ध है।
अभी के द्वार में प्रवेश करो और सब कुछ उदघाटित हो जाता है - तत्काल खुल जाता है, इसी क्षण प्रकट हो जाता है। जीवन कंजूस नहीं है : यह कभी भी कुछ भी नहीं छुपाता है, यह कुछ भी पीछे नहीं रोकता है। यह सब कुछ देने को तैयार है, पूर्ण और बेशर्त। लेकिन तुम तैयार नहीं हो।"


उपरोक्त नीले रंग में सारी की सारी बाते ओशो द्वारा कही गयी है!आपने पढ़ा....क्या वाकई ऐसा ही है....?अपने विचार जरुर व्यक्त करे हो सकता है जो बात इसे पढ़ते समय छिपी रह गयी हो वो इस पर कुछ टिप्पणी करते समय प्रकट हो जाए.....

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

मंगलवार, 22 जून 2010

मेरा पिघलना अभी बाकी है....

ये कविता
यहाँ 
जब मैंने पढ़ी तो जो ख्याल मन में आये वो ये थे....

मेरा पिघलना अभी बाकी है,

तो भला क्या समझूंगा
यूँ नदी की तरह बहने की बाते,
भांप बन बन कर उड़ने की बाते,
बर्फ से बादल होने की बाते,


इस बारे में आपके के क्या ख्याल है...बताएँगे....

जय हिन्द,जय श्री राम.
कुंवर जी,

सोमवार, 21 जून 2010

रात में सूरज को तरसता हूँ,दिन में धुप से तड़पता हूँ!

गत मई मास की हिन्दी युग्म प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का मुझे भी अवसर मिला!इसमें मेरी निम्न कविता त्रितय स्थान तक के सफ़र को पूरा कर के आई है!वैसे तो हिन्दी युग्म ने इसे प्रकाशित कर दिया था,पर मुझे लगा कि मुझे भी इसे प्रकाशित कर ही देना चाहिए सो हाज़िर हूँ आपके समक्ष.....

जब ये लिखी गयी थी तो मन अजीब सी स्थिति में था जीवन यात्रा और परमात्मा के प्रति!जो कुछ मन में था अनसुलझा सा....वो कहा नहीं जा रहा था और अचानक जो जैसे कहा गया वो यही था...... 


रात में सूरज को तरसता हूँ,
दिन में धुप से तड़पता हूँ!
आखिर क्या होगा मेरा.....?
मै हूँ कहा इस यात्रा में....?
सोचता हूँ तो पाया




मुझे
ना मंजिल का पता है
ना पहचान है,
ना रास्ते में हूँ
ना सराय में,
मंजिल भी सोचती होगी
ये भी
अजीब नादान है!


खजूर की  छाँव देख भी
ललचा जाता हूँ,
जबकि जानता हूँ मै
थोडा आगे ही तो
पीपल की घनी छाँव भी है!


राह छोड़
पग-डंडियों  
पर भटक जाता हूँ,
जबकि मै
देख चुका पहले भी
कि
इनका भी तो 
ये राह ही
पड़ाव है!


ऐसा लगता है
जैसे नीन्द में हूँ,
अभी मै
सो रहा हूँ,
आँख भी खुलती है कई बार
खुली भी है,
अँधेरा देख
पता ही नहीं लगता कि
भौर है या रात
और मै फिर सो जाता हूँ!


मै सोचता हूँ
इस बार
वो मुझे बतायेगा नहीं
जगायेगा!
सही राह पर नहीं चलाएगा
बल्कि
अपनी गोदी में उठाएगा,
झूठी हंसी नहीं
सच्चे आंसू रुलाएगा.....


लेकिन क्या मै सोचता रह जाऊँगा....?



















जय हिन्द.जय श्रीराम,
कुंवर जी,

शुक्रवार, 18 जून 2010

तो धिक्कार है कह दूं....क्या काफी है?





हम शेर से सियार बनते जा रहे है,
तो धिक्कार है कह दूं....क्या काफी है?

खुद को ही भूल रहे तो क्या याद करेंगे पूर्वजो को,
पता नहीं कौन सी थाती हम देंगे अपने वंशजो को,
उनको भी पिसने को तय्यार करते जा रहे है!
तो ये अस्वीकार है कह दूं...क्या काफी है?

रग-रग में खून वही पुराना है क्या नहीं जानते हो,
महज एक प्रयास करने भर फिर क्यों नहीं ठानते हो,
खुद पर गुजरने का इन्तजार ही क्यों करते जा रहे हो,
तो जीना बेकार है कह दूं....क्या काफी है?

कभी विश्व परिवार था आज परिवार ही विश्व हुआ जाता है,
असहनीय था जो कभी आज हमें नजर भी नहीं आता है,
उन मरने वालो में क्या हम नहीं मरते जा रहे है,
तो घोर अन्धकार है कह दूं.....क्या काफी है?

अब नहीं तो कब जागेंगे ये कौन बतायेगा,
क्या खुद भुगते बिना नहीं हमें समझ आएगा,
समर्थ हो कर भी क्यों हम पिछड़ते जा रहे है,
तो धिक्कार है कह दूं....क्या काफी है?

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,








गुरुवार, 17 जून 2010

वाह! क्या खूब धोखा दिया जा रहा है दुःख को भी!

पिछले कई दिनों से मै ब्लॉग से दूर रहा!बस यूँ समझे कि मजबूर रहा!आज भी बस अधिक समय नहीं दे पा रहा हूँ!सो एक पोस्ट जो पहले भी पोस्ट कर चुका था आज फिर आपके समक्ष रख रहा हूँ!



मित्र!
एक ऐसा शब्द है जो पूर्णता देता है हमे!या यूं कहिये कि सम्पूर्णता देता है हमे,यदि 'मित्र' शब्दों से बहार है तो!मै आज थोडा सा गंभीर सा हो गया हूँ,अपने एक मित्र को धोखा देते हूए देख कर!


अभी एक फिल्म देखी थी '३ idiots'!उसमे अभिनेता दिल को धोखा देने कि बात कहता है जो हमे अच्छी लगती है!
मुसीबत में है जी और मन को समझा दो के कुछ है ही नहीं!लेकिन ये फिल्मो में ही ज्यादा अच्छा लगता है,असल जिंदगी में थोडा मुश्किल है!


असल जिंदगी में धोखे देने भी मुश्किल होते है और धोखे खाने भी!मै सोचता हूँ के धोखा खाने वाला इतना मजबूत नहीं होता होगा जितना के धोखा देने वाला होता होगा!पहले कितनी योजना बनानी पड़ती होगी,लाभ-हानि का भी पहले ही हिसाब लगाना पड़ता होगा,अपनी साख बचाने के इंतजामात भी पहले ही सुनिश्चित करने पड़ते होंगे! 'ये ही' हुआ तो क्या करना है?'ये नहीं' हुआ तो क्या करना है?कोई ओर बात हो गयी तो.......!बहुत सारी योजनाए बनानी ओर उन पर पूरी एकाग्रता से काम भी करना,कोई चूक नहो जाए!हो भी गयी तो उस-से भी निपटाना!बहुत मेहनत है इसमें!मानसिक ओर शारीरिक रूप से मजबूत वयक्ति ही(औरत भी) इस पूरे घटनाक्रम को क्रियान्वित कर सकता है!


देखा कितनी मेहनत,लगन ओर निष्ठा का काम है धोखा देना,धोखा खाने में क्या है?


जैसे क्रिकेट में एक तेज गेंदबाज बहुत दूर से दौड़ कर आता है,अपना पूरा जोर लगा देता है वो गेंद को फेंकने में,ओर बल्लेबाज अपना बल्ला उठा कर उस गेंद को जाने दे! तो क्या बीतती होगी उस गेंदबाज पर,ये एक सवेंदनशील कविता का विषय बनने के योग्य मुझे तो लगता है!


ठीक ऐसे ही एक परिश्रमी साथी अपने अथक प्रयासों से आपको धोखा दे और आप एक ही झटके में उसकी मेहनत पर पानी फेर दो ये कह कर के "मेरी तो किस्मत मे ही ये लिखा होगा,चलो एक शुरुआत ओर सही!"


मतलब कोई मुकाबले की बात नहीं,प्रतिशोध की बात नहीं,एक दम से हार मान कर दिखा दी अपनी अक्षमता!
देखा, धोखा देना हुआ न मुश्किल,धोखा खाने के मुकाबले!कुछ भी तो नहीं करना पड़ता धोखा खाने के लिए!न पहले धोखा खाने की तय्यारी, न बाद में धोखे से बचने के प्रयास!


मै भी अपने एक मित्र का जिक्र कर रहा था जो आजकल धोखा देने में महारत हासिल करता जा रहा है!उसे देख कर ही आज पूरा दिन मै गंभीर सा रहा,जो की मै अमूमन हुआ नहीं करता!मतलब उसका "धोखा" दिल को लग गया बस समझो!


जो बहुत सारे समय मेरे साथ रहे,मेरे साथ हँसे,सभी के साथ ऐसे वयवहार करे जैसे वो सीधा सा-सच्चा सा है ओर वो इतना बड़ा धोखा देता हुआ दिखे तो बात दिल तक तो पहूँचती ही है!


उसके वयक्तिगत जीवन में एक बहुत बड़ा घटनाक्रम अचानक गुजर गया,जो किसी भी लोह पुरुष को बड़े आराम से तोड़ दे, ऐसा घटनाक्रम!और उन जनाब पर कोई असर उसका दिखाई ही नहीं दिया!ओर जो बताया वो ये था..."जब रोना आता है तो कागज़ पर दो आँखे बनायी ओर टपका दिए दो आंसू उन से,दिल हल्का हो जाता है!"
वाह! क्या खूब धोखा दिया जा रहा है दुःख को भी!
दुख़ बेचारा इतनी मेहनत कर के आया होगा के इतने से तो रुला ही दूंगा,और कागज़ पर ही आंसू छाप कर दिखा दिया ठेंगा दुःख को भी!
बस अब और मै कुछ भी लिख नहीं पाऊंगा!क्योंकि मै अभी धोखा देने में अक्षम ही  हूँ!ये कला नहीं आई अभी मुझे......


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,


शुक्रवार, 11 जून 2010

तेरी बेरुखी बेसबब तो ना होगी.....

तेरी बेरुखी बेसबब तो ना होगी,
यही सोच कर दिल हल्का हो गया,
इक पल तो रहे इस पल में,
फिर मन अतीत में खो गया,

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

लिखिए अपनी भाषा में