शुक्रवार, 5 मार्च 2010

गीता-ज्ञान यदि दुर्योधन को मिलता तो....?

जब हम प्रत्यक्ष किसी से कुछ पूछने में असमर्थ होते है तो अप्रत्यक्ष पूछ लेना चाहिए!ऐसा मुझे कई बार महसूस हो चुका है!ऐसा ही कुछ आजकल फिर मुझे लग रहा है!एक प्रशन मेरे मन-मस्तिष्क में खूब कुलाचे भर रहा है आजकल!मेरा नहीं है,पर मुझे बेचैन कर रहा है!मेरी (जैसी-कैसी भी)आस्था पर सीधे प्रहार जो कर रहा है!मै क्षमा चाहूँगा उन सब से जो मुझे थोडा गलत समझने जा रहे है!मै स्पष्ट करना चाहुंगा के मै केवल पूछ रहा हूँ,जिस पर मै आश्वश्त नहीं हूँ वो पूछ रहा हूँ!

पिछले दिनों हमारी मित्र मंडली में "श्रीमद भागवत गीता" पर चर्चा हो चली!मैंने अभी इसे पूरा नहीं पढ़ा है सम्भवतः इसीलिए मै उनके जवाब नहीं दे पाया!
प्रशन आया कि भगवान् श्री कृष्ण केवल युद्ध चाहते थे!
उनके अपने तर्क भी थे!
उन्होंने कहा यदि वो केवल ऐसा नहीं चाहते तो सम्भवतः युद्ध ना ही होता!उन्होंने अर्जुन को केवल लड़ने के लिए प्रेरित किया!
एक प्रशन ये आया कि यदि गीता का उपदेश देना था तो दुर्योधन को देना चाहिए था!उसे अधिक आवयश्कता थी ज्ञान की!गीता-ज्ञान यदि दुर्योधन को मिलता तो....?


अर्जुन तो पहले से ही विचारवान था,दुर्योधन के मुकाबले!
यहाँ मै भी एकचित नहीं रह पाता!कई जगह मैंने भी पढ़े है हमारी धार्मिक पुस्तकों में कि "इसका जिक्र केवल जिनकी इच्छा हो केवल उन्ही में करना,जिनकी इच्छा ना हो उन्हें ये ना सुनाया जाए" टाइप के आदेश!
मै भी सोचता हूँ के जो धार्मिक है उसी कि इच्छा होगी धार्मिक बाते पढने-सुनने की!जबकि जो अभी अधार्मिक है उसकी तो ये जरुरत है!मेरे हिसाब से!उसे धर्म के बारे बता कर या पढ़ा-सुना कर ही धर्म की और चलने के लिए प्रेरित किया जा सकता है!उसकी इच्छा नहीं है,इधर आने की हमे उसे बुलाना है!पर वो पहले वाली बात .."इसका जिक्र........" हमे ऐसा करने से रोकती सी प्रतीत होती है!
श्री कृष्ण भी यही करते दिखाई पड़ते है!अर्जुन युद्ध से बचाने के लिए कह रहे है और वो उसे आत्मा-परमात्मा के बारे समझा रहे है!जबकि उसकी इच्छा नहीं थी ये सुनने की फिर भी सुनाया!

दुर्योधन अमादा था युद्ध को,पाण्डव मजबूरी में लड़ रहे थे!तो श्री कृष्ण के द्वारा दुर्योधन को समझाया जाना चाहिए था!

एक प्रशन ये आया के भगवान् ने हमे अपने मनोरंजन के लिए बनाया है जो कि वो हमे हंसा-रुला कर(खासकर रुला कर) करता है!

मै उम्मीद कर सकता हूँ कि आप मेरे जिज्ञासु मित्रो की जिज्ञासा को कुछ शांत करने में मेरी साहयता करेंगे!कृपया कर मुझे समझाए कि मै क्या कह उनकी जिज्ञासा को संतुष्ट करने का प्रयास करूँ!सिवाय स्वयं गीता पढने के!क्योंकि बस ये ही उनके बस कि बात नहीं है!कुछ श्रीमद भागवद पर इतनी टिकाए मौजूद है के उनमे ही एक बात को कई तरह से समझाया गया होगा!
प्रशन तो और भी है,आज के लिए बस ये ही!
बाकी फिर कभी!
कुंवर जी,

11 टिप्‍पणियां:

  1. "कुँवरजी अच्छा विषय है। मेरे हिसाब से उस काल में वीरों की संख्या इतनी ज़्यादा हो चुकी थी कि उनको नियंत्रित करने के लिये उनको मरवाना ज़रूरी था लिहाज़ा कृष्णजी को ये सब लीला रचनी पड़ी। उस समय शाब्दिक हथियार इतने विकसित अवस्था में थे कि उनके उपयोग से प्रलय आने की पूरी संभावना थी जैसे कि ब्रम्हास्त्र । अश्वथामा के उदाहरण तो मालूम ही होगा। रही बात दुर्योधन को गीता का उपदेश देने का तो उसका कुछ् फायदा नहीं होता क्योकि वह तो युद्ध के लिये तत्पर था........."
    amitraghat.blogspot.com

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  2. your questions r important. i can't reply

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  3. Bhagvaan to antaryaami the unhe sab pta tha ki unki is baat par kaun amal karega,baki ek baat yah bhi ho sakti hai ki shayad duryodhan ko updesh dene se itna bda mahabharat nahi hota.bahut saari kayas lagaye ja sakte hain,mai bhi bachpan se ek baat nahi samjh pa raha hu ki mahabharat me jab dusaasan cheer haran kar raha tha to sadi khatam hone ka naam nahi le rahi thi tabhi dusaasan ne kaha tha ki "sadi beech naaree hai kinaari beech sadi hai,pta nahi

    VIKAS PANDEY

    www.vicharokadarpan.blogspot.com

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  4. भाई हरदीप , क्योंकि पोस्ट इश्वर से सम्बन्ध थी इसीलिए मुझसे उसका आकलन cum अपमान सहन नहीं हुआ । इसीलिए भावुक होने के वजह से पोस्ट लम्बी हो गयी . आपके जिन दोस्तों ने आपको निरुत्तर कर दिया उन्हें मेरी नीचे वाली पोस्ट से data लेकर चुप करा देना । वैसे यह प्रश्न प्रत्यक्ष पूछ सकते थे । कोई भी दृढ धार्मिक बुरा नहीं मानता , मैं तो बिलकुल भी नहीं ।

    पोस्ट अभी लिखी हैं और लिंक ये हैं
    http://saralkumar.blogspot.com/2010/03/blog-post_06.html

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  5. http://www.divyamanavmission.org/Channels/dharm59/dharm69.aspx

    युद्धाय कृत निश्चयः

    लेखक- प्रा. जगदीश दुर्गेश जोशी

    गीता के उपदेश की सार्थकता इसी में थी कि अर्जुन युद्ध करने के लिए तैयार हो जाए। वह पूरे मनोयोग से युद्ध करने के लिए न केवल तत्पर ही हुआ, अपितु महाभारत युद्ध के विजेता का गौरव भी प्राप्त कर सका। उस समय केवल एक अर्जुन था, परन्तु आज की परिस्थिति में प्रत्येक भारतवासी को अर्जुन बनना पड़ेगा, तभी भगवान श्रीकृष्ण की आराधना एवं गीता का अध्ययन-मनन सार्थक हो सकेगा।

    महाभारत काल में वैदिक ज्ञान-विज्ञान प्रायह्न लुप्त हो चुका था और तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था लड़खड़ा गई थी। इसके स्थान पर आत्मा के सच्च्े स्वरूप के विषय में तथा सामाजिक कर्तव्य के विषय में उस युग के तत्ववादियों के विभिन्न मतों का एक जंजाल ही दिखाई देने लगा था । अनेक सम्प्रदाय, मत, पन्थ तथा चिन्तनधाराएं उस काल में जन्म ले चुकी थीं, परिणामतः समाज लड़खड़ा रहा था और मतिभ्रम उत्पन्न हो गया था। जैसा कि वर्तमान में वैदिक ज्ञान के अभाव में अनेक मत, पंथ, संप्रदायों ने समाज को छिन्न-भिन्न और मृतप्राय बना रखा है। तात्पर्य यह है कि वैचारिक क्षेत्र में वर्तमान का परिदृश्य महाभारत काल के परिदृश्य से काफी मिलता-जुलता है।
    इन सभी मत-वादों के कारण उस काल में समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित हो चुका था तथा अकर्मण्यता भी बढ़ती जा रही थी । उस काल की विभिन्न विचारधराओं में कुछ धाराएं उन ज्ञानमार्गियों की थीं, जो कर्म को त्याज्य व बन्धन का कारण मानते थे। आज भी हमें इस स्थिति के दर्शन होते हैं। समाज टुकड़ों में विभाजित है और समाज, संस्कृति तथा देश हित के प्रति उदासीन अकर्मण्यों की जमात बड़ी संख्या में दिखाई दे रही है।

    मान लीजिए, यदि अर्जुन युद्ध से पलायन कर जाता तो क्या स्थिति बनती ? स्पष्ट है दुर्बुद्धि दुर्योधन जैसे स्वार्थी, अनाचारी और अधर्मियों की जमात बढ़ जाती और भीष्म, द्रोणाचार्य जैसे व्यक्ति उनकी हां में हां मिलाते दिखाई देते। द्रौपदियों की लाज सरेआम नीलाम होती दिखाई देती। अन्याय और हठधर्मिता का सर्वत्र साम्राज्य हो जाता। सोचिए और अपने अन्तह्नकरण में विश्लेषण कीजिए कि अर्जुन का युद्ध करना कितना उचित था ?

    तत्कालीन विचारधाराओं के आधार पर अर्जुन तो उस युद्ध को कठोर कर्म और पाप कर्म मानने लगा था। वह उन विचारधाराओं से इस सीमा तक प्रभावित हो चुका था कि वह स्वधर्म, क्षात्रधर्म, 'परित्राणाय साधुनां' तथा 'धर्म संस्थापनार्थाय' युद्ध कर आततायियों-अन्यायियों को मारने के अपने उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ने लगा था।

    वासुदेव कृष्ण ने अर्जुन की गलत मान्यताओं को अस्वीकार करते हुए धर्म के अनुसार उसे युद्ध करने के लिए शिक्षित और दीक्षित किया। अर्जुन ने युद्ध किया और विजय प्राप्त की। अर्जुन का यह कर्म पाप कर्म या बंधन का कारण कदापि नहीं माना जा सकता। उसने तो 'युद्धाय कृत निश्चय' के आदेश का पालन किया था।

    वर्तमान के संदर्भ में यदि हम विचार करें तो पाते हैं समाज की सिर्फ छिन्न-भिन्न तस्वीर। एक-दूसरे से घृणा करने वाले, धर्म की डींगे मारने वाले स्वार्थी वर्ग, जिन्होंने अपने राष्ट्रीय एवं सामाजिक
    उत्तरदायित्वों को भुला रखा है। वे अपनी-अपनी पूजा-उपासना में लीन हैं । भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र आदि भी पूजा-उपासना करते थे। कर्ण सूर्य पूजा करता था । किन्तु सभी ने अपनी निष्ठाएं अधर्मी दुर्योधन के लिए अर्पित कर रखी थीं।

    वर्तमान में देश पर छा रहे संकट के काले बादल, निर्दोष व्यक्तियों की हत्या, सामाजिक बिखराव, राजनीतिक विवशताएं, वैयक्तिक स्वार्थ, नैतिक पतन, स्वाभिमानहीनता आदि को देखते हुए यह कहना उचित प्रतीत होता है कि भारतीय समाज उस चौराहे पर पहुंच गया है, जहां मृत्यु उसे ढूंढ रही है। ऐसी स्थिति में आशा और विश्वास का यदि कोई प्रकाश स्तंभ है, तो वह है गीता।

    गीता के संदेश को समझकर अपने राष्ट्रहित संबंधी, देशभक्तिपूर्ण कर्तव्य का निर्धारण करना आवश्यक है। हमारे सामने एकमात्र लक्ष्य हो देश की रक्षा, आतंकी जेहादी हत्यारों का सर्वनाश। देश किसी भी वर्ग-संप्रदाय से बड़ा होता है। हम आपसी मतभेद भुलाकर राष्ट्रधर्म को अपनाएं। उसके लिए जीवन का समर्पण करें।

    इसके लिए आवश्यक है नपुंसकता को त्यागकर अर्जुन का व्रत धारण करो, गीता के अध्ययन की यही सार्थकता है। आज गीता ही हमारा संबल है। उसके मर्म को समझकर अर्जुन बनो और 'युद्धाय कृत निश्चयः'।

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  6. amit ji aapka haardik dhanyawaad hai ye jaankaari bhejne ke liye...

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  7. सुख दु:खे समे कृत्वा ...
    आपके एक प्रश्न का उत्तर तो यहाँ है:
    http://pittpat.blogspot.com/2008/11/blog-post_13.html

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  8. क्या आपके इस प्रश्न का समाधान हो चुका है अब तक ? क्योंकि यह पोस्ट बड़ी पुरानी लग रही है |

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  9. आदरणीय शिल्पा जी,आपका स्वागत है,

    जी,पोस्ट तो बहुत पुरानी है,प्रशन भी.....अमित जी,और वीरेंद्र जी ने अपने-अपने स्तर पर मुझे समझाया भी...पर संभवतः मै अभी उनके स्तर से बहुत निचे हूँ,जब वो कहते है तब तो मुझे लगता है हाँ,यही सही है,पर कुछ देर बाद.....कुछ देर बाद शंकाए फिर चारो और खडी दिखाई देती है!

    मुझे बहुत प्रसन्नता होगी यदि आप भी इस विषय पर अपने विचार मुझसे सांझा करे तो...
    कुँवर जी,

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    उत्तर
    1. पहली बात तो यह कि - संदेह को शत्रु मत समझिये | संदेह यदि बार बार आ रहे हैं - तो इसका अर्थ ही यह है कि हम सत तक पहुंचे नहीं अभी | जब तक संदेह को दबा कर चुप कराते रहेंगे हम - तब तक संदेह हमारे मित्र का role अदा कर के हमारे साथ रहेगा | जब अकाट्य सत्य तक पहुंचेंगे - संदेह खुद ही चुप हो कर अलग हो जायेगा |

      @प्रशन आया कि भगवान् श्री कृष्ण केवल युद्ध चाहते थे! उनके अपने तर्क भी थे!
      शायद चाहते हों ? क्यों हम यह prove करने का प्रयास करें कि वे युद्द्ध नहीं चाहते थे ? युद्ध टालने का समय और होता है , युद्ध करने का और समय | जहां तक हो सका - युद्ध टालने के प्रयास किये गए | कृष्ण खुद हस्तिनापुर गए - ध्रितराष्ट्र, दुर्योधन सब आँख कान बंद किये रहे |

      गीता तब कही गयी जब युद्ध छिड़ चूका था | धर्म और अधर्म का युद्ध छिड़ जाने के बाद पीछे हटना चाहता था अर्जुन | गीता तब कही गयी - और युद्ध टालने के लिए नहीं - बल्कि युद्ध करने के लिए ही कही गयी | अब आप सोचिये - आप गौ हत्या का विरोध करते हैं | सब तरह के प्रयास विफल होने के बाद युद्ध होता है - और आप उसमे से पीछे हट जाए यह कह कर कि मैं तो समझदार अहिंसावादी हूँ - तो क्या यह उचित होगा ?

      यह लिंक पढियेगा - इसमें यहाँ से "अब कई लोग कहते हैं कि - यदि कृष्ण सच मुच शान्ति चाहते थे (वे युद्ध के पहले शान्ति-दूत बने थे ) तो वे अर्जुन को इस पल पर युद्ध छोड़ देने देते - तो खून खराबे से बचा जा सकता था | मैं ऐसा नहीं समझती कि यह सही होता |
      पहली बात : ईश्वर ना युद्ध की ओर हैं - ना शान्ति की ओर | वे अनगिनत संसारों की रचना करते ही रहते हैं - और विनाश भी | वे जानते हैं कि यह खूनखराबा सच में नहीं हो रहा - ना किसी की मृत्यु ही हो रही है ....."

      पढिये - फिर इस पर आगे चर्चा करेंगे :)
      http://shilpamehta1.blogspot.in/2011/11/geeta2-1.html

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    2. आदरणीय शिल्पा जी,

      आपकी ये सहयोग की भावना देख कर मन गद -गद हो गया है,आपके in विचारो को कई बार पढ़ा... बिल्कुल विपक्ष me खड़े होकर भी देखा, पर पक्ष में होकर जो आत्मविश्वाश एक बार बना था वो गया नहीं,

      समय के अभाव में मै चर्चा को लगातार नहीं रख पार रहा हु, पर आपके अमूल्य सारगर्भित और सभी को जानने योग्य शुभ विचार मै पढ़ जरुर रहा हूँ.

      कृपया आप इसे जरी रखे...
      कुँवर जी,

      हटाएं

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