सोमवार, 22 मार्च 2010

जब ऐसा हो जाएँ!(कविता),

तेरी  बाहें हो
मेरे गले में,
और मेरी बाँहें
तुम्हारे गले में,
चल रहे हो हम यूँ ही
और चलते रहे,
चलते-चलये टकरायें
सर हमारे
कभी-भी अचानक,
तो भी हम चलते रहें!

या फिर
अटकाए बांहों में बाहें
हम-तुम,मिला कर
कंधे से कन्धा
साथ-साथ,चला किये!

या फिर चल पड़े
पकड़ हाथों में हाथ,
हिलाते
उनके साथ ज़ज्बात,
ऐसा भी नहीं तो,
राह एक पर ही,
हम दोनों कुछ दूर तक ही,
चलते रहे साथ-साथ,
तो मन हल्का हो जाएँ!
मगर तब,
जब ऐसा हो जाएँ!
कुंवर जी,

5 टिप्‍पणियां:

  1. हर रंग को आपने बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों में पिरोया है, बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  2. संजय जी इतना सम्मान देने के लिए आपका धन्यवाद!
    हालांकि मै इसके काबिल नहीं हूँ फिर भी!
    कुंवर जी,

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  3. आनंद आ गया साहब मुझे तो ,बादलों पे सवार हो गया पड़ते पड़ते , मार्च के चक्कर में धर्मपत्नीजी के साथ चैन के पल नहीं बिता पा रहा था, आपकी रचना मोब.पे उसको ज्यों की त्यों पढके सुनाई, और हम बादलों पे बैठ के हातों में हात डाले निकल लिए जी .
    धन्यवाद आपका

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  4. बेहतरीन प्रस्तुति .....संजय जी ने सही कहा हर शब्द में गहराई है

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