कल जब आदरणीय गोदियाल जी की ये कविता वयंग्य पढ़ी!तो शब्दों को तो जैसे कोई पगडण्डी मिल गयी हो!बढ़ चले उस ओर ही!राह में जितने भी "क्यों" मिले सब को एकत्रित कर ले आये मेरे पास!अब मुझ अज्ञानी के पास इनके उत्तर है नहीं!शायद आप के पास हो,यही सोच कर इन्हें आपके सुपूर्द कर रहा हूं जी!
आज आदमी की सोच इतनी बीमार क्यों है?
समर्थ होकर भी वो लाचार क्यों है?
बदलना है तो आज क्यों नहीं,
ये खामख्वाह ही कल का इंतज़ार क्यों है?
चुकती कर दी सबकी देनदारी फिर भी,
अपने प्रति बाकी ये उधार क्यों है?
जो खुद की नजरो में तो गिरा पड़ा है,
वो समाज में इतना इज्ज़तदार क्यों है?
झूठ बोल-बोल कितने ही आदर्श बन गए.
सच बोलने वाला आज गुनाहगार क्यों है?
छला जाता हूँ हर बार फिर भी,
हर किसी पर मेरा ऐतबार क्यों है?
बेशर्म तो जी रहा मस्त ऐश में,
जिसने शर्म की वो ही शर्मशार क्यों है?
जिनके मन काले है भीतर से,
उनके ही मुख पे इतना निखार क्यों है?
पलके जो गीली है,
उन ही आँखों में ये अंगार क्यों है?
जय हिंद.जय श्रीराम,
कुंवर जी,
बहुत अच्छा लिखते हो कुंवर जी। बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंशाहनवाज भाई आपका स्वागत है जी,!आपने इस तुच्छ के तुच्छ से विचारो की प्रशंशा की उस से मै अभिभूत हूँ!आपको ये पसंद आई ये आपका बड़प्पन है,और मेरा हौसला इसी से ही बढ़ गया है!
जवाब देंहटाएंकुंवर जी,
बहुत खूब कुंवरजी , बहुत खूब !
जवाब देंहटाएं@गोदियाल जी,
जवाब देंहटाएंजखम देख कर कोई सहलाता नहीं है,
नमक डालते है,इलाज़ कोई बताता नहीं है!
कुंवर जी,
छला जाता हूँ हर बार फिर भी,
जवाब देंहटाएंहर किसी पर मेरा ऐतबार क्यों है?
बेशर्म तो जी रहा मस्त ऐश में,
जिसने शर्म की वो ही शर्मशार क्यों है?
वाह! कुंवर जी कमाल कर दिया।
एकदम धांसु अंदाज पसंद आया
राम राम
bahut badhiya likha hai.
जवाब देंहटाएंकलमुंहे है जो अन्दर से, वे मांजते निज मुख विशेष
जवाब देंहटाएंउज्ज्वलता पागये चन्द्रसी, आई पर ना शीतलता लेश
देख कटुता आपस में जग की, नम हुए कुछ निमेश
छला ना जायेगा अब कोई "अमित" है ये अग्नि विशेष
राम राम ललित जी,
जवाब देंहटाएंआपका स्वागत है जी!
राजेन्द्र सिंह 'रहबर' जी की दो पंक्तियाँ आज याद आ रही है.....
"तेरी चारागरी कैसी है,इलाज कैसा है?
जहर देकर पूछते है मिजाज़ कैसा है?"
@वंदना जी आपका धन्यवाद है जी!
कुंवर जी,
बहुत खूब ... ऐसे प्रश्न मन को उद्वेलित करते हैं ... पर इनका जवाब नही मिलता कभी ... इसी को परिवर्तन कहते हैं .. मूल्य बदल रहे हैं समाज के ...
जवाब देंहटाएंआज के परिप्रेक्ष्य में सटीक बात .. बहुत बढिया लिखा !!
जवाब देंहटाएं.... behatareen ... laajawaab rachanaa / gajal !!!
जवाब देंहटाएंsATIIK BAAT ..........SUNDER LEKH
जवाब देंहटाएंkunwar ji aapki rachna padhkar alag hi romanch hota hai....bahut bahut dhanyawad
जवाब देंहटाएंhttp://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
@अमित भई साहब,मनोभावों को समझ कर आप जो तुरन्त ही कविता का रचना कर डालते हो वो अद्भुत है!
जवाब देंहटाएं@नासवा जी-इन मूल्यों को बदलने में हम कितने बदल गए है,इसका भी ख्याल रखना चाहिए!जब हम भी बदल जाते है तो प्रशन और अधिक बलवान हो जाते है!
@संगीता जी,@उदय जी,@संजय भई साहब-आप सब के सहयोग की मुझे हमेशा जरूरत रहती है,और वो मिल भी रहा है!बस ऐसे ही साथ रहें जी!
@दिलीप जी-आपका स्वागत है जी!प्रेरित करने के लिए धन्यवाद है जी!
आप सब के सह योग से मै ये रोमांच हमेशा बनाने कि कोशिश करता रहूँगा!
कुंवर जी,
mein kya kahu iske baare me .
जवाब देंहटाएंsirf ye hi kag sakta hu ki
CHHA GAYE GURU
lage raho ji jaan se
राणा साहब !इस तुच्छ को धारती पर ही पड़ा रहने दो!
जवाब देंहटाएंहम बिछना चाहते है,तुम कहते हो छा गए,
सोचना पड़ेगा,किधर के लिए चले थे और कहाँ आ गए!
कुंवर जी,
इस क्यों का जवाब तो अपने पास भी नहीं... पर हर क्यों जायज़ है इतना पता है...
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा!!
Oh wah! Kya adhipatya hai aapka apni lekhnee pe...! Rashk ho raha hai!
जवाब देंहटाएंwaah... behad khoobsurat... man ko chuti rachna..
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