मंगलवार, 29 जून 2010

उदास हो के मै क्या पाऊंगा.......?

उदास हो के मै क्या पाऊंगा?
दूर हूँ,पास हो के मै क्या पाऊंगा?


हाँ,अँधेरा बन के गुम हूँ मै,
होते ही जो बिखर जाए
वो प्रकाश हो के मै क्या पाऊंगा?


तारे कि तरह टूट गया,सही है ये भी,
जो कभी पूरी ना हो पाए
वो आस हो के मै क्या पाऊंगा?


चलो वहम ही बना रहूँ मै दिल में तुम्हारे,
जो इक पल भी ना टिक पायें
वो विशवास हो के मै क्या पाऊंगा?


नाकाम ही सही एक पहचान तो है,
जो कभी किया ही ना जाए
वो प्रयास हो के मै क्या पाऊंगा?


देखा नहीं तुमने मुझे शुक्र है,
जो महसूस ही ना किया जाए
वो आभास हो के मै क्या पाऊंगा?


आम ही समझना मुझे तुम सदा
जो सम्भाला ही ना जाए
वो ख़ास हो के मै क्या पाऊंगा?


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

शुक्रवार, 25 जून 2010

हमारी ऐसी कौन सी मज़बूरी है जो आज़ादी सिर्फ विकारों को ही मानते जा रहे है!

आजकल
 अमित भाई साहब के लेखो पर गरमागरम बहस सी चली हुई है!उन्ही की एक पोस्ट पर टिप्पणी लिखने लगा तो ये लिखा गया...... उन्होंने कहा...
".....लेकिन  विकारों को आजादी का नाम देकर जिस तरह से अपनाये जाने की घिनोनी भेडचाल मची उससे सारा ढांचा ही भरभरा रहा है...." 


तो इस पर मेरे विचार कुछ यूँ थे....
इस बात से तो कोई भी असहमत नहीं होगा!असल बहस का मुद्दा भी यही होना चाहिए!क्यों हम विकारों को आज़ादी का नाम देने पर तुले हुए है!

श्रेष्ठ कौन है? इसका उत्तर हम किस से ले रहे है और किसे दे रहे है?भगवान् श्री ने अर्धनारीश्वर का रूप सम्भवतः इसी असमंजस के नाश के लिए ही धरा होगा,पर हम जब भगवान् के इशारों को भी अनदेखा कर रहे है तो भला किसी ओर के बताने से तो क्या समझेंगे!
हमारी ऐसी कौन सी मज़बूरी है जो आज़ादी सिर्फ विकारों को ही मानते जा रहे है!क्या सच में कोई पीड़ित वर्ग है जो आज़ाद हो ही जाना चाहिए,या फिर यह कोई मानसिक विकृता भर है!मुझे लगता है हमें ऐसे विकारों से आज़ादी की जरुरत है!

हम ब्लॉग लिख-पढ़ रहे है तो स्वभावतः ही बुद्धिजीवी तो होने ही चाहिए.....और बुद्धिजीवियों में असहमति हो जाए किसी बात पर तो इस से भी सकारात्मक परिणाम ही आने चाहिए!एक सार्थक,निष्पक्ष और निर्णायक बहस के रूप में!लेकिन इसका अर्थ ये नहीं की यदि आपने मेरी बात नहीं मानी तो मै आपके प्रति कटुता पाल लूँ,और एक निरर्थक बहस को जन्म दे दूँ!


हमें कम से कम अपने प्रति जिम्मेवार तो होना ही चाहिए!और मेरे हिसाब से जो अपनी जिम्मेवारी को इमानदारी से निभा रहा है वो ही श्रेष्ठ है अब चाहे वो पुरुष है या नारी,ये महत्त्व नहीं रखता!इसे भी मुझे ऐसा कहना चाहिए कि "अपनी जगह" वो श्रेष्ठ है!

फिर से मुद्दे पर आते है....

क्या हमारी वर्तमान शिक्षा हमें ये सोचने पर विवश कर रही कि जो परंपरा या संस्कृति हमारी पिछली पीढ़ी ने निभायी वो एक ग़ुलामी और दकियानूसी के सिवाय कुछ नहीं...?

क्या वो संस्कृति या परम्परा असल में ही वैसी ही है जैसा कि नयी पौध के कुछ पौधे उसे समझ रहे है?यदि नहीं तो क्यों उसने उन्हें अपने में नहीं ढाला?

क्या हम खुद इतने संस्कारित नहीं रहे है कि आने वाली पीढ़ी तक उन संस्कारों को पहुंचा सके?

जहाँ तक मै अपनी बात करूँ तो स्थिति ये है कि वैसे तो मै उन संस्कारों को,परम्पराओं को अपने मन में सहेजे हुए हों,और दैनिक जीवन में उनका सहारा भी लेता रहता हूँ!पर कई बार मन में आ जाता है कि थोडा सा इन के बिना भी आचरण हो जाए तो कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा और एक-आध बार मै ऐसा कर भी डालता हूँ!तो क्या ये एक-आध बार करने कि प्रवृत्ति ही बड़ा कारण बन सकती है भविष्य में.....?

अब मै अपने माता-पिता और घर की बात करूँ तो वो एक पुरानी सोच वाला परिवार ही है!उन्हें मेरा अथवा मेरे अन्य भाइयो का शाम होते ही घर में होना पसंद है!हालांकि मै कई बार सोचता हूँ कि हमारी वजह से कोई भी,कैसा भी उल्हाना अब तक नहीं आया सो हमें थोड़ी बहुत छूट मिलनी चाहिए पर अन्त में उनकी बात ही ठीक लगती है...जब किसी पर अकारण ही बुराई आती दिखती है तो....!इस पर भी हमारी जितनी बहने है उनमे से जिसने भी पढने की इच्छा जताई है उन्होंने स्नातक तक पढ़ाई की ही है,उस से ऊपर भी पढ़ी है,तो यहाँ कोई बंधन भी दिखाई नहीं देता!

अब मैंने अपनी बात आपके समक्ष रखी...मै आशा करता हूँ कि आप भी एक बार अपना आंकलन इस हिसाब से जरूर करेंगे,यदि योग्य समझे तो उस आत्म-मंथन से हमें भी अवगत कराये....!
आप सभी शुभकामाए स्वीकार करे...

जय हिन्द.जय श्री राम,
कुंवर जी,

बुधवार, 23 जून 2010

जीवन में कोई रहस्य है ही नहीं.......!


आज कुछ ओशो की बातो पर चर्चा हो जाए!उनका मनोविज्ञान अनूठा था,थोडा अलग था,थोडा अजीब सा भी था,पर गहरा था!देखिये जीवन के रहस्य के बारे में वो क्या कहते है....और तत्पश्चात आप क्या कहते है वो भी बताने की कृपा करे......

"जीवन में कोई रहस्य है ही नहीं। या तुम कह सकते हो कि जीवन खुला रहस्य है। सब कुछ उपलब्ध है, कुछ भी छिपा नहीं है। तुम्हारे पास देखने की आँख भर होनी चाहिए।
पर यह ऐसा ही है जैसी कि अंधा आदमी पूछे कि 'मैं प्रकाश के रहस्य जानना चाहता हूँ।' उसे इतना ही चाहिए कि वह अपनी आँखों का इलाज करवाए ताकि वह प्रकाश देख सके। प्रकाश उपलब्ध है, यह रहस्य नहीं है। लेकिन वह अंधा है- उसके लिए कोई प्रकाश नहीं है। प्रकाश के बारे में क्या कहें? उसके लिए तो अँधेरा भी नहीं है- क्योंकि अँधेरे को देखने के लिए भी आँखों की जरूरत होती है।


एक अंधा आदमी अँधेरा नहीं देख सकता। यदि तुम अँधेरा देख सकते हो तो तुम प्रकाश भी देख सकते हो, ये एक सिक्के के दो पहलू हैं। अंधा आदमी न तो अँधेरे के बारे में कुछ जानता है न ही प्रकाश के बारे में ही। अब वह प्रकाश के रहस्य जानना चाहता है। अब हम उसकी मदद कर सकते हैं उसकी आँखों का ऑपरेशन करके। प्रकाश के बारे में बड़ी-बड़ी बातें कह कर नहीं- वे अर्थहीन होंगी!


जिस क्षण अहंकार बिदा हो जाता है, उसी क्षण सारे रहस्य खुल जाते हैं। जीवन बंद मुट्ठी की तरह नहीं है, यह तो खुला हाथ है। लेकिन लोग इस बात का मजा लेते हैं कि जीवन एक रहस्य है- छुपा रहस्य। अपने अँधेपन को छुपाने के लिए उन्होंने यह तरीका निकाला है कि छुपे रहस्य हैं कि गुह्य रहस्य है जो सभी के लिए उपलब्ध नहीं हैं, या वे ही महान लोग इन्हें जान सकते हैं जो तिब्बत में या हिमालय में रहते हैं, या वे जो अपने शरीर में नहीं हैं, जो अपने सूक्ष्म शरीर में रहते हैं और अपने चुने हुए लोगों को ही दिखाई देते हैं।
और इसी तरह की कई नासमझियाँ सदियों से बताई जा रयही है सिर्फ इस कारण से कि तुम उस तथ्य को देखने से बच सको कि तुम अंधे हो। यह कहने की जगह कि 'मैं अंधा हूँ', तुम कहते हो, 'जीवन के रहस्य बहुत छुपे हैं, वे सहजता से उपलब्ध नहीं हैं। तुम्हें बहुत बड़ी दीक्षा की जरूरत होती है।'
जीवन किसी भी तरह से गुह्य रहस्य नहीं है। यह हर पेड़-पौधे के एक-दूसरे पत्ते पर लिखा है, सागर की एक-एक लहर पर लिखा है। सूरज की हर किरण में यह समाया है- चारों तरफ जीवन के हर खूबसूरत आयाम में। और जीवन तुम से डरता नहीं है, इसलिए उसे छुपने की जरूरत ही क्या है? सच तो यह है कि तुम छुप रहे हो, लगातार स्वयं को छुपा रहे हो। जीवन के सामने अपने को बंद कर रहे हो क्योंकि तुम जीवन से डरते हो।


तुम जीने से डरते हो- क्योंकि जीवन को हर पल मृत्यु की जरूरत होती है। हर क्षण अतीत के प्रति मरना होता है। यह जीवन की बहुत बड़ी जरूरत है- यदि तुम समझ सको कि अतीत अब कहीं नहीं है। इसके बाहर हो जाओ, बाहर हो जाओ! यह समाप्त हो चुका है। अध्याय को बंद करो, इसे ढोये मत जाओ! और तब जीवन तुम्हें उपलब्ध है।
अभी के द्वार में प्रवेश करो और सब कुछ उदघाटित हो जाता है - तत्काल खुल जाता है, इसी क्षण प्रकट हो जाता है। जीवन कंजूस नहीं है : यह कभी भी कुछ भी नहीं छुपाता है, यह कुछ भी पीछे नहीं रोकता है। यह सब कुछ देने को तैयार है, पूर्ण और बेशर्त। लेकिन तुम तैयार नहीं हो।"


उपरोक्त नीले रंग में सारी की सारी बाते ओशो द्वारा कही गयी है!आपने पढ़ा....क्या वाकई ऐसा ही है....?अपने विचार जरुर व्यक्त करे हो सकता है जो बात इसे पढ़ते समय छिपी रह गयी हो वो इस पर कुछ टिप्पणी करते समय प्रकट हो जाए.....

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

मंगलवार, 22 जून 2010

मेरा पिघलना अभी बाकी है....

ये कविता
यहाँ 
जब मैंने पढ़ी तो जो ख्याल मन में आये वो ये थे....

मेरा पिघलना अभी बाकी है,

तो भला क्या समझूंगा
यूँ नदी की तरह बहने की बाते,
भांप बन बन कर उड़ने की बाते,
बर्फ से बादल होने की बाते,


इस बारे में आपके के क्या ख्याल है...बताएँगे....

जय हिन्द,जय श्री राम.
कुंवर जी,

सोमवार, 21 जून 2010

रात में सूरज को तरसता हूँ,दिन में धुप से तड़पता हूँ!

गत मई मास की हिन्दी युग्म प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का मुझे भी अवसर मिला!इसमें मेरी निम्न कविता त्रितय स्थान तक के सफ़र को पूरा कर के आई है!वैसे तो हिन्दी युग्म ने इसे प्रकाशित कर दिया था,पर मुझे लगा कि मुझे भी इसे प्रकाशित कर ही देना चाहिए सो हाज़िर हूँ आपके समक्ष.....

जब ये लिखी गयी थी तो मन अजीब सी स्थिति में था जीवन यात्रा और परमात्मा के प्रति!जो कुछ मन में था अनसुलझा सा....वो कहा नहीं जा रहा था और अचानक जो जैसे कहा गया वो यही था...... 


रात में सूरज को तरसता हूँ,
दिन में धुप से तड़पता हूँ!
आखिर क्या होगा मेरा.....?
मै हूँ कहा इस यात्रा में....?
सोचता हूँ तो पाया




मुझे
ना मंजिल का पता है
ना पहचान है,
ना रास्ते में हूँ
ना सराय में,
मंजिल भी सोचती होगी
ये भी
अजीब नादान है!


खजूर की  छाँव देख भी
ललचा जाता हूँ,
जबकि जानता हूँ मै
थोडा आगे ही तो
पीपल की घनी छाँव भी है!


राह छोड़
पग-डंडियों  
पर भटक जाता हूँ,
जबकि मै
देख चुका पहले भी
कि
इनका भी तो 
ये राह ही
पड़ाव है!


ऐसा लगता है
जैसे नीन्द में हूँ,
अभी मै
सो रहा हूँ,
आँख भी खुलती है कई बार
खुली भी है,
अँधेरा देख
पता ही नहीं लगता कि
भौर है या रात
और मै फिर सो जाता हूँ!


मै सोचता हूँ
इस बार
वो मुझे बतायेगा नहीं
जगायेगा!
सही राह पर नहीं चलाएगा
बल्कि
अपनी गोदी में उठाएगा,
झूठी हंसी नहीं
सच्चे आंसू रुलाएगा.....


लेकिन क्या मै सोचता रह जाऊँगा....?



















जय हिन्द.जय श्रीराम,
कुंवर जी,

शुक्रवार, 18 जून 2010

तो धिक्कार है कह दूं....क्या काफी है?





हम शेर से सियार बनते जा रहे है,
तो धिक्कार है कह दूं....क्या काफी है?

खुद को ही भूल रहे तो क्या याद करेंगे पूर्वजो को,
पता नहीं कौन सी थाती हम देंगे अपने वंशजो को,
उनको भी पिसने को तय्यार करते जा रहे है!
तो ये अस्वीकार है कह दूं...क्या काफी है?

रग-रग में खून वही पुराना है क्या नहीं जानते हो,
महज एक प्रयास करने भर फिर क्यों नहीं ठानते हो,
खुद पर गुजरने का इन्तजार ही क्यों करते जा रहे हो,
तो जीना बेकार है कह दूं....क्या काफी है?

कभी विश्व परिवार था आज परिवार ही विश्व हुआ जाता है,
असहनीय था जो कभी आज हमें नजर भी नहीं आता है,
उन मरने वालो में क्या हम नहीं मरते जा रहे है,
तो घोर अन्धकार है कह दूं.....क्या काफी है?

अब नहीं तो कब जागेंगे ये कौन बतायेगा,
क्या खुद भुगते बिना नहीं हमें समझ आएगा,
समर्थ हो कर भी क्यों हम पिछड़ते जा रहे है,
तो धिक्कार है कह दूं....क्या काफी है?

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,








गुरुवार, 17 जून 2010

वाह! क्या खूब धोखा दिया जा रहा है दुःख को भी!

पिछले कई दिनों से मै ब्लॉग से दूर रहा!बस यूँ समझे कि मजबूर रहा!आज भी बस अधिक समय नहीं दे पा रहा हूँ!सो एक पोस्ट जो पहले भी पोस्ट कर चुका था आज फिर आपके समक्ष रख रहा हूँ!



मित्र!
एक ऐसा शब्द है जो पूर्णता देता है हमे!या यूं कहिये कि सम्पूर्णता देता है हमे,यदि 'मित्र' शब्दों से बहार है तो!मै आज थोडा सा गंभीर सा हो गया हूँ,अपने एक मित्र को धोखा देते हूए देख कर!


अभी एक फिल्म देखी थी '३ idiots'!उसमे अभिनेता दिल को धोखा देने कि बात कहता है जो हमे अच्छी लगती है!
मुसीबत में है जी और मन को समझा दो के कुछ है ही नहीं!लेकिन ये फिल्मो में ही ज्यादा अच्छा लगता है,असल जिंदगी में थोडा मुश्किल है!


असल जिंदगी में धोखे देने भी मुश्किल होते है और धोखे खाने भी!मै सोचता हूँ के धोखा खाने वाला इतना मजबूत नहीं होता होगा जितना के धोखा देने वाला होता होगा!पहले कितनी योजना बनानी पड़ती होगी,लाभ-हानि का भी पहले ही हिसाब लगाना पड़ता होगा,अपनी साख बचाने के इंतजामात भी पहले ही सुनिश्चित करने पड़ते होंगे! 'ये ही' हुआ तो क्या करना है?'ये नहीं' हुआ तो क्या करना है?कोई ओर बात हो गयी तो.......!बहुत सारी योजनाए बनानी ओर उन पर पूरी एकाग्रता से काम भी करना,कोई चूक नहो जाए!हो भी गयी तो उस-से भी निपटाना!बहुत मेहनत है इसमें!मानसिक ओर शारीरिक रूप से मजबूत वयक्ति ही(औरत भी) इस पूरे घटनाक्रम को क्रियान्वित कर सकता है!


देखा कितनी मेहनत,लगन ओर निष्ठा का काम है धोखा देना,धोखा खाने में क्या है?


जैसे क्रिकेट में एक तेज गेंदबाज बहुत दूर से दौड़ कर आता है,अपना पूरा जोर लगा देता है वो गेंद को फेंकने में,ओर बल्लेबाज अपना बल्ला उठा कर उस गेंद को जाने दे! तो क्या बीतती होगी उस गेंदबाज पर,ये एक सवेंदनशील कविता का विषय बनने के योग्य मुझे तो लगता है!


ठीक ऐसे ही एक परिश्रमी साथी अपने अथक प्रयासों से आपको धोखा दे और आप एक ही झटके में उसकी मेहनत पर पानी फेर दो ये कह कर के "मेरी तो किस्मत मे ही ये लिखा होगा,चलो एक शुरुआत ओर सही!"


मतलब कोई मुकाबले की बात नहीं,प्रतिशोध की बात नहीं,एक दम से हार मान कर दिखा दी अपनी अक्षमता!
देखा, धोखा देना हुआ न मुश्किल,धोखा खाने के मुकाबले!कुछ भी तो नहीं करना पड़ता धोखा खाने के लिए!न पहले धोखा खाने की तय्यारी, न बाद में धोखे से बचने के प्रयास!


मै भी अपने एक मित्र का जिक्र कर रहा था जो आजकल धोखा देने में महारत हासिल करता जा रहा है!उसे देख कर ही आज पूरा दिन मै गंभीर सा रहा,जो की मै अमूमन हुआ नहीं करता!मतलब उसका "धोखा" दिल को लग गया बस समझो!


जो बहुत सारे समय मेरे साथ रहे,मेरे साथ हँसे,सभी के साथ ऐसे वयवहार करे जैसे वो सीधा सा-सच्चा सा है ओर वो इतना बड़ा धोखा देता हुआ दिखे तो बात दिल तक तो पहूँचती ही है!


उसके वयक्तिगत जीवन में एक बहुत बड़ा घटनाक्रम अचानक गुजर गया,जो किसी भी लोह पुरुष को बड़े आराम से तोड़ दे, ऐसा घटनाक्रम!और उन जनाब पर कोई असर उसका दिखाई ही नहीं दिया!ओर जो बताया वो ये था..."जब रोना आता है तो कागज़ पर दो आँखे बनायी ओर टपका दिए दो आंसू उन से,दिल हल्का हो जाता है!"
वाह! क्या खूब धोखा दिया जा रहा है दुःख को भी!
दुख़ बेचारा इतनी मेहनत कर के आया होगा के इतने से तो रुला ही दूंगा,और कागज़ पर ही आंसू छाप कर दिखा दिया ठेंगा दुःख को भी!
बस अब और मै कुछ भी लिख नहीं पाऊंगा!क्योंकि मै अभी धोखा देने में अक्षम ही  हूँ!ये कला नहीं आई अभी मुझे......


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,


शुक्रवार, 11 जून 2010

तेरी बेरुखी बेसबब तो ना होगी.....

तेरी बेरुखी बेसबब तो ना होगी,
यही सोच कर दिल हल्का हो गया,
इक पल तो रहे इस पल में,
फिर मन अतीत में खो गया,

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

गुरुवार, 10 जून 2010

खामोशियों की जुबाँ समझे तो मायने बदल जाते है बातो के.....(कुंवर जी)

खामोशियों की जुबाँ समझे
तो मायने बदल जाते है बातो के,
असमंजस में है कि बातों के मायने बदले
या बात पुरानी रहने दे....

जिस्मानी जुबाँ का अंदाज-ए-बयाँ तो
कुछ और ही अफसाना कह रहा,
अच्छा लगे तो मान ले वरना
अफसानात रूहानी रहने दे,

हौंसले अपने तो पस्त है
हाल-ए-दिल कहने में सुनने में,
ज्यादा परेशानी ना उठा
आँखों को ही सब कहानी कहने दे,

वैसे भी चुप रहना ही भला है
मेरा और तुम्हारा आजकल,
जो फिर कभी मिलने-मिलाने वाली
यें बातें आसमानी रहने दे.....

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

बुधवार, 9 जून 2010

तुझको मजबूर समझ मै लौट आया.....


मै कल तेरे दरवाजे तक गया
और लौट आया,

अन्दर जाना जी ने बहुत चाहा
पर मै लौट आया,

मन ही मन तेरा दर खटखटाया
और मै लौट आया,

लगा मुझे ऐसा कि
देख लिया है तुमने मुझे कहीं से,
तुमको भी अनदेखा कर मै लौट आया,

कुछ तो रह गया था मेरा वही पर,
उसे वहीँ छोड़ कर मै लौट आया,

मै लौट आया ये मेरी मजबूरी नहीं थी,
तुझको मजबूर समझ मै लौट आया...

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

सोमवार, 7 जून 2010

अब तो बस करो...


सुन लो ये मौन-क्रंदन,
उसका भी है
कुछ कहने का मन!

अभी चल रही थी
तैयारी उसके आने की,
अभी विचारो में तुम्हारे
पनप रहा है उसका दमन,

तब नहीं सोचा था
अब सोच रहे हो...
तब के अवसर को समस्या जान,
अब हल खोज रहे हो!


उजाड़ रहे हो
स्वयं तैयार किया हुआ चमन!


और तुमने कर लिया अपने मन का,
जब भी किया था,
अब भी कर लिया अपने मन का,
तुम पर शायद कोई असर नहीं पड़ा
इस दमन का,

निष्फल रहा तुम पर प्रहार
उस मौन क्रंदन का...

देख नहीं पाये तुम वो आंसू
जो बहा नहीं,
सुन नहीं पाये वो विलाप
जो किसी ने खुल कर कहा नहीं...

वह जो आया भी नहीं था..
वह भी सह गया..
अब तो बस करो...
मानव से कह गया...


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

शुक्रवार, 4 जून 2010

जीवन कोई दलदल है क्या........?....(क्षणिका)




जितना सुलझाना चाहता हूँ
उतना ही छटपटाता हूँ,
जितना छटपटाता हूँ
उतना ही धंसता जाता हूँ,
जीवन कोई दलदल है क्या........?
समझ ही नहीं पाता हूँ...
.
.
.

जय हिन्द जय श्रीराम,
कुंवर जी,

बुधवार, 2 जून 2010

जिकर करण के लायक नहीं और चुप रहया ना जावै, {हरयाणवी रागणी},

ये मन भी...बस कुछ भी कहीं भी महसूस करने लग जाता है,
नहीं सोचता चलो घर की ही तो बात है,पर नहीं...
इन शब्दों के आगे भला हमारी क्या बिसात है...?
घर की हो या बहार वालो की अब घात तो घात है....

आज कुछ आपबीती जो जैसे अनुभव की थी ज्यों की त्यों प्रस्तुत करने को मान कर रहा है.....भाषा हरियाणवी थी, थोडा-बहुत है भी फिर भी सभी के लिए सरल रूप में लिखने की चेष्टा की है....जहाँ थोड़े कठिन शब्द है साथ में सरल अर्थ भी दिया गया है.....



जिकर करण के लायक नहीं और चुप रहया ना जावै,
जितना मै चुप रहणा चाहूँ यो रंज जिगर नै खावै!

धोखा और लालच आजकल बेहवै सै नस-नस मै,
करते बखत(1) ना ख्याल करै के कर रहये हम आपस मै,                 (1)-समय
जिब(2) बस मै बात ना आती दिक्खै तो जान तक लेणा  चाहवै,                  (2)-जब
लुच्चे माणस(3) उच्चे हो रहये साच्चो नै दबावै!                                      (3)-आदमी

सिधा माणस मरया  चौगर्दै(1) तै रो रहया अपणे करम,                    (1)-हर तरफ से
तन कर राख्या बज्र का पर भित्तर(2) तो वो सै नरम,                          (2)-अन्दर
भाई शर्म-शर्म मै सारया लुटग्या और कैह्ता सरमावै,
थोथा चणा बज रहया घणा असल ना टोहया(3) पावै!                              (3)-ढूँढने से

जग मै साफ़ घर मै दागी काम आजकल ऐसा होया,
ईमान और धरम-करम तो बस बात्या(1) का होया,                                   (1)-बातो
रोया बुगले वाले आंसू और साथ  वो सबका चाहवै,
नाड़(2) काट ले टूक खोस ले पर सुद्धा कहलावै !                                        (2)-गर्दन

दो घडी ईमान गेर कै जब जिया जावै सुख मै,
इमानदारी की राह पै फेर क्यों जीवै जिंदगी दुख़ मै,
इसी रूख(1) मै सबकी सोच ना इस गड्ढे तै बहार आवै,                     (1)-इसी ओर
सोच सबकी वैसी ही होई अन्न वे जैसा खावै! 

धोखा आज करया हमनै कल होग्या यो म्हारे साथ,
 दो आन्ने  की पतीली और दिख जात्ती कुत्ते की जात,
बात सुन कै ही समझ ल्यो ना तो भुगते पाच्छै आवै,
आवाज ना सुर-साज और हरदीप फेर भी गाणा चाहवै!

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

लिखिए अपनी भाषा में