गुरुवार, 29 जुलाई 2010

शब्दों में जो धार हो तो कलम कम नहीं तलवार से....(कुंवर जी)

प्रारब्ध का दुश्चक्र ऐसा चला कि हमें कम्पनी में अपनी फ्री इन्टरनेट वाली सीट से हाथ धोना पड़ गया है......ये बात कोई मायने नहीं रखती कि हमारी कागजो में थोड़ी सी तरक्की हो गयी है......और पता नहीं कैफे वालो को भी इसकी भनक कैसे लग गयी.....?उन्होंने भी अपने रेट दस को बढाकर पंद्रह/प्रति घंटा  कर दिया है...!

मै बस यही कहना चाहूँगा कि ये एक शरीफ,आम,और नीरीह ब्लॉगर के साथ अन्याय हुआ ओर हम इसके खिलाफ कुछ कर भी नहीं सकते.....
एक षड्यंत्र जो हमारे विरुद्ध रचा गया था और जिसमे सब(कंपनी से लेकर कैफे वाले तक) शामिल थे,वो सफल रहा......और  हम इसे प्रारब्ध मान कर खुद को संतोष देने की चेष्टा कर रहे है....

आज फिर एक पुरानी रचना जिसे दिलीप भाई साहब की एक ओजपूर्ण कविता पर टिप्पणी स्वरूप शुरू किया गया था आपके समक्ष है.....नया कुछ लिखने का तो समय ही नहीं मिल पा रहा है....




शब्दों में जो धार हो तो कलम कम नहीं तलवार से,
आँखों में आंसूं हो गर स्वाभिमान के कम नहीं अंगार से,

मरना बेहतर लगता है.
भीरूओ की भान्ति जीने से
मरना हल नहीं,
दुनिया चली गयी
नहीं किसी के पसीने से,
सहानुभूति के लिए ही जीना बस,कम नहीं धिक्कार से,
कम से कम आत्मा को तो दूर रखो किसी विकार से!

अरे गर आंसू आ गया तो
कोई गुनाह नहीं हुआ था,
वो पल तो कब का चला गया,
जिसको तुमने छुआ था,
जो तुम्हे अब रुला रहा क्या वो निकालेगा तुम्हे इस अन्धकार से?
भाग्य में जो तुम्हारा है क्यों नहीं लेते उसे अपने अधिकार से!


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

रविवार, 11 जुलाई 2010

जो भी कहा वो बस बेमानी था......(कुंवर जी)

जो भी सहा वो सब रूहानी था....
जो भी कहा वो बस बेमानी था...

कुछ दुविधा,कुछ दुर्भाग्य,
और कुछ आँख का पानी था!


लिखा पड़ा था पहले से ही कहीं,
और लगा कि हमारी ही मनमानी था!


यूँ जीते जी मरना और तड़पना,
क्या इसी का नाम जिंदगानी था!

चाहता हूँ पर कह नहीं पाता हूँ,
और मौन भी तो मौत अनजानी था!



क्या तुम्हे भी आप-बीती सी लगी,
जो कुछ भी ये मेरी जुबानी था!

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कौन कहता है कि दफनाने के बाद जलाया नहीं जाता....

वो आते है
कब्र पर मेरी
अपने हमसफ़र के साथ....
कौन कहता है
कि
दफनाने के बाद
जलाया नहीं जाता....


(एक सन्देश आया था मोबाईल पर.....बहुत अच्छा लगा तो सोचा आप तक भी पहुंचा दूं.....)


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

शनिवार, 3 जुलाई 2010

एक कविता प्यार के विरह में

"प्यार " बस ये ढाई शब्द बहुत हैं , जीवन को रस से भरने के या फिर नीरस करने के . सच्चा प्यार जब किसी से होता है तो ऐसा लगता है कि इस लड़की के पास आने पर संगीत बज उठता है . प्यार पर कुछ लिखना अपने आप में अद्वितीय होता है . आशा है आपको मेरी ये नयी थीम पसंद आएगी . सब कुछ सच्चाई है झूठ या कल्पना नहीं .  उसके बिछड़ने के एहसास आज तक बिलकुल ताजा है . अनुभूति इतनी कि सैंकड़ो कविताये लिखी जा सके . तो मैं शुरू करता हूँ उसके प्यार को समर्पित :-

सांसो में आज तक उसकी रूह समायी है 
सारा जग मेरे साथ फिर भी क्यों तन्हाई है 

सितारों से उसकी मांग सजाने का जब सपना जगा था 
हाथ मेरे कलम करने को कोई अपना ही लगा था

किसी तरह उस गुलाबी रंगत वाली को पाना था 
आखिरी कदम पर बिछड़ जाना एक फ़साना था 

सच्चे प्यार में ही ईश्वर दिख गया था 
ख़ुशी मेरी सारी  उसके  नाम लिख गया था 

दर्द उसका दिल में लिए जीना श्राप हो गया था 
लोग कर गए पर मेरा कहना भी पाप हो गया था 

उसकी चाहत में दुनिया के रस्मे तोड़ ली थी 
पर उसने बाद में मुझसे राहे क्यों मोड़ ली थी 

मेरे सवालो के जवाब उसकी आत्मा से मांगता हूँ 
बस मेरी गलती बता दे पर मैं जवाब जानता हूँ 

उसकी दीवानगी  क्यों मुझे हंसाकर रुला गयी 
बची सारी जिन्दगी में तड़पना सिखा गयी 

बस वो मेरे शब्दों की सच्चाई पर तो जाये 
आखिरी साँस पर हूँ संजीवनी तो लाये 

फिर भी उससे शिकवा नहीं क्या पता वो मजबूर हो 
कृष्ण और राधा के ना मिलने का कोई दस्तूर हो 

कमल जैसे कीचड में खिलकर बस यु ही फना होता है 
भरे समन्दर ऐसे ही " हरदीप " जलकर आपसे विदा होता है .

धन्यवाद ,

मै सोचता हूँ कि.......(कुंवर जी)

पिछले कई दिनों से मै वो समय नहीं निकाल पा रहा हूँ जिसे कुछ दिनो पहले तक मै अपना सबसे अनिवार्य समय मानने लगा था....विवशताएँ कहे या कुछ ओर इस पर अभी शोध कार्य चल रहे है.....मै सोच रहा हूँ कि जब तक प्रयोग सफल हो तब तक आपको एक ऐसे लड़के का किस्सा सुनाँ दूं जो मेरी ही तरह सोचता बहुत था.......पर कभी-कभी मुझ से अलग कुछ कर भी देता था.....

कभी मैंने सुना था....आज आप झेले..... 

..........एक कक्षा में किसी अध्यापक को कक्षा में ही लड्डू खाने कि तलब हो आई!लड्डू थे नहीं सो बहार दुकान से मंगवाने कि सोच ली!उसने कक्षा में दृष्टि दौड़ाई तो जो लड़का सबसे शांत दिखाई दिया उसको ही 5 रुपये दे दिए लड्डू लाने के लिए!अब जो बहुत सोचता है वो स्वाभाविक ही शांत तो होता ही है!

उस लड़के ने वो 5 रुपये दुकानदार को दिए और बोला लड्डू दे दो!दुकानदार ने लड्डू तोले,पहले तराजू में 5 रखे जब देखा के ज्यादा है तो एक निकाला!ठीक थे दे दिए!वो लड़का भी ले कर चल दिया,और शुरू हो गया उसके सोचने का सिलसिला!


उसने सोचा जब दुकानदार 5 रख कर एक वापस उठा सकता है तो वो तो मै भी 4 में से एक तो उठा ही सकता हूँ,मास्टर जी देख थोड़े ही रहे है!एक उठाया और खा गया!


बीच राह में एक बड़ा नाला था,उसे कूदने लगा तो एक लड्डू गिरते-गिरते बच गया!उसने फिर सोचा,"गिर भी तो सकता था"! एक और खा गया!


जैसे ही विद्यालय में प्रवेश किया,फिर सोचा!उसने सोचा के मै इतनी मेहनत कर के लड्डू ला रहा हूँ,कम से कम एक तो मिलेगा मुझे भी!क्यों मास्टर जी का समय नष्ट किया,सोचा बता दूंगा और खा गया!


अब जो एक बचा था उसे ही अखबार में बहुत अच्छी तरह से लपेट-सपेट कर रख दिया मास्टर जी के सामने!मास्टर जी 5 रुपये का एक लड्डू पाकर हैरान,परेशान!


उस शांत बच्चे से बड़ी शान्ति से पूछा- "5 का एक ही?"


वो बोला- "नहीं; थे तो ज्यादा यहाँ तक एक ही पहुँच पाया!"


मास्टर जी-थोडा सा सख्त हो कर-"कैसे????"


लड़का-"जी दूकानदार ने 4 रखे फिर एक उठा लिया,रह गए तीन!"


मास्टर जी- "वो तीन कहा गए ?"


लड़का-"जी एक लड्डू नाला कूदते हूए नाले में गिर गया!रह गए दो!"


मास्टर जी थोडा सा और गंभीर होते हूए- ये तो दो भी नहीं, ये कैसे???


लड़का बड़ी ही स्वाभाविक सी मासूमियत के साथ- "मैंने सोचा मै इतनी मेहनत कर के लड्डू ला रहा हूँ,कम से कम एक तो मिलेगा मुझे भी!क्यों मास्टर जी का समय नष्ट किया,सोचा बता दूंगा और खा गया!


मास्टर जी फुल्ली आग-बबूला होते हूए- "हरामजादे! मेरा लड्डू तू कैसे खा गया??"


उस लड़के ने वो लड्डू उठाया और मुह में रक्खा और खा गया,बोला-"जी ऐसे खा गया!"


मास्टर जी देखते रहे और वो जो एक लड्डू जैसे-कैसे भी आया था, वो भी उन्हें नसीब न हूआ!






मै सोचता हूँ कि........


मै केवल सोचता ही हूँ,करता नहीं हूँ ये भी ठीक ही है!


यदि वो लड़का मेरी तरह केवल सोचता ही,करता नहीं तो मास्टर जी को उनके सारे लड्डू मिल ही जाते!
{पुनः प्रकाशित}
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

लिखिए अपनी भाषा में