रविवार, 29 अगस्त 2010

वो रिश्ता......(कविता)...कुंवर जी!

वो रिश्ता......
वो रिश्ता जो अनजान था,अनाम था,
गैरजरूरी सा और बेकाम था,
वो बे-मुकाम और बे-आयाम था,
हम उस रिश्ते में या वो हम में तमाम था!
हमें कुछ भी पता नहीं करना था!

श्रद्धा,समर्पण और बस एक विश्वाश था,
बिना किये जो हुआ वो एक प्रयास था,
देखो सच्चा होकर भी बस एक कयास था,
वो रिश्ता तो आम पर उसमे जरूर कुछ ख़ास था!
सच में हमें कुछ भी पता नहीं करना था!

लगता है अब भी बात अधूरी ही कह पाये है,
सोच मेरी नहीं तो क्या कोई अरमान पराये है,
या कोई सपन-सलोने है जो बस हमीं ने सजाये है,
इतनी बातो के बाद भी अब ये ख्याल कहाँ से आये है,
कुछ भी हो हमें कुछ भी पता नहीं करना है!




जय हिन्द,जय श्री राम,
कुंवर जी,

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

या फिर...

आप सब से जो प्यार मुझे मिल रहा है उसको मै कभी भी स्वयं से दूर नहीं मानता,बस मलाल इस बात का रहता है कि मै आपको यथोचित रूप से  यह सूचित नहीं कर पा  रहा हूँ!एक अघोषित सी जो दूरी बनी हुई है प्रत्यक्ष में वो अप्रत्यक्ष में कहीं भी नहीं है......!इस निरन्तर मिल रहे  आशीर्वाद के लिए आप सभी का आभार है जी.....

आज फिर आप के समक्ष प्रस्तुत है एक  विचारों ऐसी कड़ी जिसे सब कविता कहलवाना पसंद करते है........ 

जो चल दे हम
एक ही राह पर कभी,
साथ-साथ ना साही
आस-पास ही सही!
या फिर...


साथ हो ले हम
चलते-चलते,
थोड़ी देर के लिए ही सही!
या फिर...


साथ हमारा राह की तरह
लम्बा होता चला जाए,
ना कोई मंजिल,
ना कोई मोड़ आये
और चलते रहे हम
साथ-साथ!
आस-पास नहीं'
साथ-साथ!
या फिर...


हम बैठ जाएँ थक कर
और तुम रख लो सर मेरा
अपनी गोदी में,
मेरे कहने पर!
या फिर...


तुम खुद ही कह दो कि
ओढ़ लो जुल्फों को मेरी
धुप से बचने की खातिर!
भले ही हम थके ही ना हो,
तब भी!
मै कहूं और तुम
उंगलियाँ फेरती रहो
बालो में मेरे!
और मै ना उठना चाहूँ,
ना वहा से चलना!
या फिर...


तुम ही कह दो कि
यही तो मंजिल थी हमारी
अब और कहाँ जाएँ!



ये सब सोचने से
फुर्सत मिले तो
शायद...
शायद मै सो भी जाऊं,
और,
ये सब सपने पाऊं!
या फिर...


एक रात और गुजर जायेगी
यूँ ही पलके झपकाते हुए....




जय हिन्द,
जय श्री राम,
कुंवर जी,

लिखिए अपनी भाषा में