रविवार, 19 सितंबर 2010

अब कैसे मेरे भ्रमो का निवारण हो........?????

मानव मन की प्रकृति है या मेरे मन का कोई षड़यंत्र है मुझे नहीं पता!जब भी मै कुछ सोचता हूँ तो किसी भी नतीजे पर स्पष्ट नहीं पहुँच पाता हूँ!
आरम्भ आवेश से कर के अन्त को जूझता हूँ,
जब कुछ सुलझा नहीं पाता तो खुद पहेली बना उन्हें ही बूझता हूँ!

समय ही नहीं मिल रहा है आप सब से निरन्तर मिलते रहने का !जब कभी भी समय मिलता है तो जो कुछ पहले लिखा गया होता है उसे पढ़ कर ही संतुष्ट होने की कोशिश करता रहता हूँ!पर ये संतुष्टि..........पता नहीं कब और कैसे मिलेगी...???


जहाँ मै रूक जाता हूँ,या मेरा मस्तिष्क कुछ भी कहने-करने से मना कर देता है;आज कुछ ऐसा ही आप सब सुधिजनो के बीच प्रस्तुत है कृप्या अपने ज्ञान और अनुभव की यहाँ बरसात करें......जिस से मुझ अयोग्य को कुछ योग्य बाते पता चले!


वो शब्द क्या हो जिसका ही बस उच्चारण हो,
साधना का भी तो कोई साधन हो,
भेद करने का भी तो कोई कारण हो,
अद्वैत तो समझू जो कोई समक्ष उदाहरण हो,
अब कैसे मेरे भ्रमो का निवारण हो........?????

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी रचनाओं में एक अलग अंदाज है,

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  2. एक कविता सुनाता हूँ कुंवर जी :
    जब मेरी भी मनःस्थिति कुछ ऎसी ही थी.

    शीर्षक है : "इतर-संदेह "

    किसको कह दूँ अपनी गाथा?
    जिसमें बस व्यथा ही व्यथा.
    जिस पर बस हास हँसा करता
    कसता व्यंग्य हँसता-हँसता.
    सुनकर भय भी डरने लगता
    करुणा रोती उर की प्यारी
    अब चिंता से बन गयी चिता
    है जल मरने की तैयारी.

    नारी से नेह किया लेकिन
    वाणी नारी की सुनी नहीं.
    नारी तो निज पलकों पर थी.
    श्रद्धामय आसन पर अवसित
    थी मौन और आकारहीन
    वत्सल को छंग लिये अपने
    था सखा भाव नयनों में भी
    मैं भक्त बना करता अर्चन.

    मैं रहा सदा अपने में ही
    पर जानी सबकी विरह-व्यथा.
    अपने बल से कर दिया, हल
    जिसको भी मैं कर सकता था.
    अब कुढ़ता हूँ अपनी देह में
    गेह का दरवाजा बंद किये.
    नेह से भी न कर सकता नेह
    भय रहता सदा इतर-संदेह.

    जब तक स्वयं को स्पष्ट नहीं करते चलोगे तब तक ही ये स्थितियाँ हैं. दूसरे सभी संदेह करने लगेंगे आपके आचरण पर.
    आप कभी संदेहास्पद ना होने पायें.

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