गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

बिखरे पन्ने.......(कुंवर जी)

यादों से लड़ना हो या उनसे खेलना......दोनों ही हमें किसी ओर दुनिया में पहुंचा देते है!कभी गिरते है हम कभी खुद ही तन जाते है.....खामोश बैठे-बैठे यूँही अचानक मुस्कुराते है.....और तो क्या ख़ाक समझेंगे जब हम ही कुछ समझ नहीं पाते है!


और जब यादे उन पुराने मित्रो की हो जो कभी एक जान रहे हो,और अभी आस-पास भी ना हो तो.......
बस वो सब महसूस करने वाला होता है!कुछ-कुछ बताने के लिए कुछ लिख छोड़ा था कभी....आज आप सभी के समक्ष है.....




एक किताब की सिलाई उधड़ने पर जैसे
बिखरते है उसके पन्ने,
जानकारी जो होती थी कभी पूरी
रह जाती है आधी-अधूरी,
और फिर चलता है दौर लम्बा एक
पन्नो के फड़फड़ाने का,
कोई कहीं उड़ चला जाता है संग हवा के
कोई अटक जाता है कहीं!
न कोई सुनता है न ही समझता है तो
क्या फायदा उनके यूँ  फड़फड़ाने  का!
कभी गुजर जाते बिलकुल पास से
गुजर जाते,बनी रहती फिर भी उनमे दुरी!
फिर कभी वो किताब नहीं बनते दुबारा
रहते है यूँ ही बिखरे पन्ने!
जैसे हम........




जय हिन्द,जय श्रीराम,
(कुंवर जी)

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