दिन की सारी
उमंगो-तरंगो को समेट
रोज
ये शाम
ढल जाती है
सारी चमक
उम्मीदों वाली
शाम की लालिमा में
पिघल जाती है...
ये शाम
ढल जाती है
फिर भी ढलती नहीं
जाने क्यों
रात बन फिर
सुबह में बदल जाती है....
हारता तो नहीं हूँ
पर हार
हो ही जाती है.
उठा कदम
धरते ही
धरती सी फिसल जाती है...
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,