प्रकाश-पुन्ज को
अभी निहारा भी न था
जी भर के,
ना समेटा ही था अभी
आश्चर्य
आँखे खुलने का,
कि तभी
शाम का डर समां गया मन में,
सूरज के भी ढलने का रोमांच
डरा ही तो रहा था!
तम के वहम से सहमा मन
और भी चकित हो गया
जब
देखा कि
तम को भेदती हुई
वो महीन सी किरण
विराट हुई जाती है
फूटी है मुझ ही से...
जय हिन्द,जय श्रीराम!
कुँवर जी,
अभी निहारा भी न था
जी भर के,
ना समेटा ही था अभी
आश्चर्य
आँखे खुलने का,
कि तभी
शाम का डर समां गया मन में,
सूरज के भी ढलने का रोमांच
डरा ही तो रहा था!
तम के वहम से सहमा मन
और भी चकित हो गया
जब
देखा कि
तम को भेदती हुई
वो महीन सी किरण
विराट हुई जाती है
फूटी है मुझ ही से...
जय हिन्द,जय श्रीराम!
कुँवर जी,