शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

मुझे अनुभव रेत के महलो का है.....(कुँवर जी)







मेरे शब्दकोष में कितने शब्दों के  अर्थ बदल गए,
अरमानो के सूरज कितने चढ़ शिखर पर ढल गए,
फौलादी इरादे वक़्त की तपन से मोम के जैसे पिघल गये,
सपनो तक जाने वाले रस्ते भौर होते ही मुझको छल गये,
इसी लिए तो आजकल बाते कम किया करता हूँ मै,
जिह्वा दब जाती है शब्दों के बोझ तले तो दो पल को सोचा करता हूँ  मै,

पहले हर हरकत एक जूनून हो जाती थी,
करना है तो बस करना है ऐसी धुन हो जाती थी,
क्या फ़िक्र थी कि ओरो की नजर ये बाते गुण या अवगुण हो जाती थी,
गुम था भविष्य,वर्तमान के लिए तो ये ही शगुन हो जाती थी,
आज शगुन को भी दो घडी टटोला करता हूँ मै,
तुमको लगा तो ठीक लगा के बाते करते सोचा करता हूँ  मै,


मुझे अनुभव रेत के महलो का है सो डरता हूँ हर आहट  से,
कितनी चतुराई क्यों न दिखाऊ हार जाता हूँ इस समय के  इक पल नटखट से,
फिर वो खड़ा मुस्कुराता है बेफिक्र और बेखबर हो मेरी हर झल्लाहट से,
सब भूलने का हौसला भी यूँ तो देता,उलझा कर तभी नयी  खटपट में,
बस यही से फिर जीने का दम भर जाता हूँ मै!

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,



शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

फिर आतंकियों ने सेना पर हमला बोल दिया.....(लघु कथा )...(कुँवर जी)

मिश्रा जी ने चाय को ऐसे पिया जैसे किसी काढ़े का घूँट भर रहे हो!उनकी बहन घर पर आई हुयी थी,उन्होंने पूछा क्या हुआ चाय में चीनी की जगह नमक डाल दिया है क्या?
मिश्रा जी मुखमंडल पर दार्शनिक सी आभा को दिखाते हुए से बोले,"आज का अखबार तो देखो... फिर आतंकियों ने सेना पर हमला बोल दिया, कितने जवान शहीद हो गए!बोलते-बोलते वो सच में ही भावुक हो गए!फिर किसी की माँग सूनी हो गयी होगी,कितनी राखी कलाइयों को तरस जायेगी!कितनी माँ बस राह ताकती रह जायेगी!"
अखबार को अपने मन की तरह मसोस कर एक तरफ फेंक कर ऐसे ही बडबडाते हुए वो अपने कमरे की और चल पड़े,घडी की और नजर पड़ी तो ...." ओहो, आज फिर लेट हो जाऊँगा,अपनी पत्नी को लगभग धमकाते हुए वो बाथरूम की और दौड़े,"तुम्हे भी समय का पता नहीं चलता क्या?बताना तो चाहिए!आज तो वैसे भी एटीएम होकर जाना था,पांच-दस मिनट वहाँ भी लग जायेंगे!"
पत्नी बेचारी अपनी ननन्द की वजह से अपने सारे गुबार अपने ही अन्दर रखते हुए बोली,"नहाना बाद में, पहले अपने जीजा जी से बात तो कर लो.... क्या पता आज भी आये न आये!" पलट कर होंठ पीटती सी रसोई की और चली गयी!
मिश्रा जी की बहन को लगा की शायद वो ये कहती गयी है कि" रोज इसे लेने के लिए आने कि कह देते है....और आ रहे है नहीं!
उधर मिश्रा जी फोन काट कर बोले,"आज फिर बिना नहाये ही जाना पड़ेगा,खाना जैसा भी,जितना भी बना हो पैक कर दो!मैंने बोल दिया है जीजा जी को आज तो वो आ ही जायेंगे सो एटीएम तो जाना ही पड़ेगा!"
मिश्रा जी की बहन सोफे के एक कोने में फडफड़ाते  हुए अखबार को एक तक देखे जा रही थी,जैसे उसमे वो खुद को तलाश रही हो!

जय हिन्द,जय श्री राम,
कुँवर जी,   

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

इन्सानियत से होता कोसो दूर इन्सान !....(कुँवर जी)

हालातो के हाथो
में खुद को सौंप
दुआ,बददुआ और
किस्मत को भूल,
एक दुसरे को मारने को मजबूर इन्सान !

दया,धर्म और धैर्य
सब गए रसातल में
पथरीली आँखों के
वहशीपन में ये दो पाया
इन्सानियत से होता कोसो दूर इन्सान !

अहम्,स्वार्थ,
और राजनीति के षड्यंत्र,
इनसे आँखे मूंदे,
खुद से ही लड़ता हुआ
भला चल पायेगा कितनी दूर  इन्सान !




जय हिन्द, जय श्रीराम,
कुँवर जी,

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

कैसे आज तीज के झूले झूलूँ मै....

कैसे आज तीज के झूले झूलूँ मै....
दो सर आज भी झूल रहे है उनकी संगीनों पर...
कैसे भूलूँ मै!


झूलों की रस्सी में सांप दिखाई देते है,
हर आँखों में सीमा के संताप दिखाई देते है,
भड़क उठेंगे शोले जो जरा सी राख टटोलूं मै,
झूल रहे है दो शीश.....!


आस्तीन में सांप पालना कोई सीखे हमसे आकर,
दावत देते है हत्यारों को हम ससम्मान बुलाकर,
अबके घर में उनके घुसकर उनके शीश काट सारे दाग धोलूँ मै,
झूल रहे है दो शीश...!


कैसे आज तीज के झूले झूलूँ मै....
दो सर आज भी झूल रहे है उनकी संगीनों पर...
कैसे भूलूँ मै!


जय हिन्द ,जय श्रीराम,
कुँवर जी,

सोमवार, 5 अगस्त 2013

वो तो भूखे ही रह जायेंगे ना....!!!(कुँवर जी)

बस अपनी चाल से बस दौड़ी जा रही थी!हर कोई अपनी-अपनी बातो में मशगूल था! एक वृद्ध जन बैठा-बैठा अचानक मायूस सा होता दिखाई दिया!साथ वाले ने बड़े आदर से उन से उनके यूँ दुखी होने का कारण जानना चाहा!
उन बुजुर्गवार ने बताया कि वो पिछले कई दिनों से घर से बाहर है!बस इसीलिए थोड़े चिंतित है!
तो साथ वाले ने भी बड़े दार्शनिक से अंदाज में कहा," हाँ, घर से दूर होकर घरवालो की कमी महसूस होती ही है!"
इस बुजुर्गवार ने कहा,"मै हर रोज छत पर कुछ दाने और पानी रख देता था,अगली सुबह तक दाने कोई न कोई पक्षी आकर खा जाते थे और मै फिर रख देता था!काफी दिनों से यही सिलसिला चला आ रहा था,पर पिछले कुछ दिनों से मै घर से बहार हूँ तो वह कोई दाने भी नहीं रख रहा होगा....... बस यही सोच कर चिंतित और दुखी हूँ!"
"आप भी बस... अरे पक्षियों को लेकर इतने दुखी हो रहे हो...?वो कहीं भी जाकर खा लेंगे,कही भी उनको दान-पानी मिल जायेगा!" वो साथ वाले जनाब माहौल को हल्का करते हुए बोले!
तो बुजुर्गवार अपनी दोनों भौहों को सिकोड़ते हुए बोले,"पर जो पक्षी मेरे रखे हुए दानो के लिए कहीं और के दाने छोड़ कर आयेंगे वो तो भूखे ही रह जायेंगे ना....!!!



जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

क्या पता कौन-कहाँ घात लगाए बैठा हो!...(कुँवर जी)

दिन में भी मध्यरात्रि  सा सन्नाटा पसरा था!सूरज जैसे कोई नाराजगी दिखा रहा हो!हवा भी खीजी सी पड़ी थी,तपी हुयी चीखती-चिल्लाती बस वही जहाँ-कहाँ  धुल उडाती सी जलाती फिर रही थी!ऐसे में कबूतर का एक परिवार जिसमे दो व्यस्क और दो बच्चे थे,उड़ने का साहस दिखा रहे थे!
जीने की चाह भी मरने को मजबूर कर देती है!बैठे रहते तो भूख-प्यास से मरते और उड़ रहे है तो गर्मी-लू से मरने का अंदेशा, पर उड़ेंगे तो शायद  कही कुछ मिल जाएगा खाने-पीने को बस यही आस झेल रही थी गरम हवा को भी!
आखिर उनकी हिम्मत और मेहनत ने एक छत पर कुछ आस दिखाई!एक कोने में एक टोकरी किसी लकड़ी के सहारे कुछ ऐसे खड़ी की हुई  थी कि उसके निचे रखे हुए पानी के बर्तन पर धुप न पड़े और उसका पानी गर्म न हो!उसे देख कबूतरों की जान में जान आ गयी!और अधिक वेग से वे वह तक पहुंचे!वह पहुँच कर देखते है कि कुछ चावल भी वहा पड़े हुए है
कोटि-कोटि आशीष उनके तन-मन से फूटने लगे उस चावल और पानी को रखने वाले के प्रति !व्यस्क कबूतर ने मन में विचार किया कि थोडा पानी पी  और कुछ चावल खा लूँ  और थोडा सुस्ता लूं,फिर थोड़ी जान आ जाएगी इस लू में फिर से उड़ने की!तब अपने अन्य साथियों को भी यही बुला लाऊंगा!

चारो जीव परमात्मा और उस दाना-पानी को रखने वाले का धन्यवाद करते हुए अपनी भूख-प्यास को शांत करने लगे!वो  सोच रहे थे कि  धर्म अभी भी जिन्दा है, सबका हित चाहने वाले है अभी भी!हम जैसे निरीह बेजुबानो की परवाह करने वाले है धरा पर!

तभी  जैसे कोई  भूचाल सा आया हो,  जिस लकड़ी के सहारे वो टोकरी खड़ी थी…… अचानक ...... झटके से सरकी , वयस्क कबूतर तो उस हलचल को भांप गए थे!जब तक टोकरी गिरती तब तक दोनों बहार थे!पर दोनों बच्चो को अभी इतना अनुभव नहीं था .... सो जब तक उनकी समझ में कुछ आता तब तक वो  घुप्प अँधेरे में आँखे फाड़ रहे थे, बेचैनी में टोकरी से सर टकरा रहे थे!

जिस लकड़ी के सहारे वो टोकरी खड़ी  थी उसके निचले सिरे से एक बहुत महीन सा धागा बंधा हुआ था,जिसे वहाँ  से थोड़ी दूर कोने में अजित और सलिल पकड़े बैठे थे!दोनों पांचवी कक्षा में पढ़ते थे,गर्मियों की छुटियाँ चल रही थी!खली दिमाग शैतान का घर!दोनों को शरारत सूझी और कोई पंछी पकड़ने की चाह ने ये पूरा ताम-झाम जमवा दिया!दोनों ख़ुशी से किलकारियां मारते हुए, उछालते हुए आए!दोनों बहार बचे कबूतर फर्र्र से उड़ कर दूर जा बैठे और अपने दोनों नन्हे मुन्नों को देखने की आस लिए बैचनी से इधर-उधर चक्कर काटने लगे!अब उन्हें कोई लूं-गर्मी अथवा धूप की सुध नहीं रही थी!
दोनों मन में प्रार्थना कर रहे थे कि अभी बस वो दोनों उस टोकरी से कैसे भी निकल आये बस!फिर तो अपने कुटुम्ब में जाकर सबको यही बताना है कि यहाँ मत आये... यहाँ क्या ऐसी किसी भी जगह जरा सोच-समझ कर ही जाए!क्या पता कौन-कहाँ घात लगाए बैठा हो!

  

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,

मंगलवार, 2 जुलाई 2013

हमें जरुरत क्या है अपने दैनिक जीवन में भगवान् की....?(कुँवर जी)

श्री हरी!ॐ !
हमें जरुरत क्या है अपने दैनिक जीवन में भगवान् की?उसके अस्तित्व को मानने अथवा न मानने से क्या फर्क पड़ता है हमारे दैनिक जीवन में?
उनका नाम लेने से अथवा स्मरण करने से अथवा उनके अस्तित्व को मान लेने से ही हमारी दैनिक जरुरत पूरी नहीं हो जाती!न ही हमें कोई नौकरी मिलती है, ना रोटी ही मिलती है और ना ही कोई मकान बन जाता है तो जरुरत क्या है उस भगवान् की हमें!भला क्यों मान ले हम उसे कि वो कहीं है भी?
मेरे एक मित्र है,आजकल अमरीका में उनका वास है!इंटरनेट के माध्यम से कुछ चर्चा चल रही थी तो कुछ ऐसे ही भाव वो जता रहे थे!
स्पष्ट शब्दों में वो जानना चाह रहे थे कोई "वैलिड" सा कारण जिसके आधार पर हम परमात्मा का होना मान ले!अब इसके गूढ़ प्रशन पर मुझे मौन ही साधना पड़ा!

अब कुछ पुरानी सुनी हुयी बाते स्मरण में आ रही है!उसको तो पता नहीं इस से संतुष्टि मिलेगी या नहीं पर मै  जरुर संतुष्ट हो जाता हूँ ऐसी बाते स्मरण कर के!

पढ़ा था कही.. कहाँ पता नहीं!

हम जब कहीं घूमने  जाते है तो अपने साथ रुपये-पैसे जरूर रखते है!हमारा ध्यान के इन पर ही केन्द्रित  होता है सबसे ज्यादा!हालांकि हम इन्हें खा नहीं सकते,ओढ़-पहर नहीं सकते पर सबसे अधिक ध्यान  पैसो पर ही होता है कि इनकी वयवस्था हमारे पास बनी रहे!और इन्हें पाने के लिए बहुत अधिक मेहनत भी
  करनी पड़ती है !
हालांकि खाना इस से ज्यादा जरुरी विषय है परन्तु हम उतना खाने कि चीजो पर ध्यान नहीं देते जितना पैसे को महत्त्व देते है!थोडा बहुत खाने की चीजे भी ले लेते है!हालांकि हम बिना खाए भी कई दिन रह सकते है फिर भी खाने की कुछ चीजे हम साथ लेके ही चलते है!

खाने से थोडा ज्यादा जरुरी है पानी!पर उस पर खाने से भी कम ध्यान दिया जाता है जाते हुए हम सोचते है कि पानी तो कही भी आसानी से उपलब्ध हो जाएगा!उपयोग के हिसाब से पानी खाने से कही अधिक बार हम प्रयोग करते है पर पानी की उपलब्धता पर खाने से कम मेहनत करनी होती है/करते है!
अब पानी से भी अधिक महत्वपूर्ण है हवा!इसके विषय में हम सोचते भी नहीं!कभी सोचते ही नहीं कि कल के लिए कुछ हवा रख ले!या कही जा रहे है तो अपनी हवा संग ले चले!
अथवा तो ये कहे कि कभी कुछ थोडा सा भी श्रम करने की जरुरत नहीं पड़ी है जीने लायक हवा को पाने के लिए!बिना कुछ किये ही ये हमें सर्वत्र उपलब्ध होती है!


क्या ये एक "वैलिड"  कारण नहीं है उसके होने का कि हमारे जीने के लिए सभी जरुरी चीजे हमें बिना किसी विशेष श्रम के उपलब्ध हो जाती है!इन सब चीजो की व्यवस्था वो पहले ही कर देता है!

यहाँ बस यही स्पष्ट करने की कोशिश थी कि जो चीज हमारे जीने के लिए, जीवन के लिए जितनी महत्वपूर्ण है, अथवा तो ये कहे  कि जीव के जीने के लिए जो चीज जितनी ज्यादा जरुरी है वो उसे उतने ही कम श्रम और अधिक आसानी से उपलब्ध हो जाती है!इसी आधार और अनुपात पर इन चीजो के लिए हमारे मन में चिंता-जरूरत  उत्पन्न होती है!

इसी तरह खाना-पानी-हवा को भी जो प्रयोग कर रहा है, जिसके बिना हम एक क्षण भी नहीं रह सकते!खाने के बिना भी हम कुछ दिन रह सकते है,पानी के बिना भी हम कुछ दिन जी सकते है और हवा के बिना भी हम कुछ समय तक जीवित रह सकते है पर जिस कारण से हम इन सबका प्रयोग कर पाते है वो आत्मा, उस चैतन्य स्वरूप का तो हम कभी ख्याल ही नहीं करते!पर वो हवा से भी अधिक समीप होता है हमारे!उसके बिना तो एक निमेष  भी शरीर जीवित नहीं रह सकता पर उसके लिए तो सांस लेने जितना श्रम भी हम नहीं करते!हमें उतना करने की भी जरुरत महसूस नहीं होती!
हमें जरूरत ही अभाव में होती है!उस परमात्मा का कभी अभाव ही हमें नहीं होता तो जरुरत भी महसूस नहीं होती!
हमें जरुरत ही नहीं है उसका होना मानने की,क्योकि कभी उसका अभाव ही नहीं है हमारे होने में!

जय हिन्द , जय श्रीराम 
कुँवर जी,
 

 

 

बुधवार, 26 जून 2013

प्रकृति ने की क्रिडा तो उपजी पीड़ा...(कुँवर जी)

जब तक चली तो खूब खेला
मानव प्रकृति संग
और जब
प्रकृति ने की क्रिडा
तो उपजी पीड़ा,
विश्वाश 
कही घायल पड़ा
लोगो से नजरे चुरा
कराह रहा है,
श्रद्धा
किसी पेड़ की टहनी में
अटकी हुई सी
किसी कीचड़ में दबे चीथड़े में
सिमटी हुई सी मौन है!
आस है कि
टकटकी लगाये बैठी है
उसी की और ही
जिसने
ये तांडव मचाया है!


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी

गुरुवार, 20 जून 2013

आज निर्जला एकादशी है!



ॐ नमः भगवते वासुदेवाय!
आज निर्जला एकादशी है!संयोग और सौभाग्य से आज ये त्रिस्पर्षा एकादशी भी है,अर्थात आज एकादशी के साथ द्वादशी और त्रयोदशी तिथियों के योग का संयोग है जो कि बहुत कम देखने को मिलता है!






वैसे तो वर्ष कि सभी चौबीस एकादशियो को निराहार रह कर उपवास करना चाहिए लेकिन यदि हम सभी न रख सके तो निर्जला एकादशी का व्रत अवश्य ही रखना चाहिए!महर्षि वेड व्यास जी ने भीमसेन को बताया था कि सभी एकादशियो के बराबर निर्जला एकादशी है! और जब त्रिस्पर्षा एकादशी हो तो ये एक हजार एकादशियो के सामान बताई गयी है!इसे भीमा एकादशी और पांडव एकादशी भी कहते है!
 






आज के दिन निराहार तो रहना ही होता है संग में पानी भी नहीं पीना होता है!एकादशी का दिन भगवान् विष्णु जी को स्मरण करते हुए बिताना चाहिए!
ॐ नमः भगवते वासुदेवाय!
ॐ नमः भगवते वासुदेवाय!
ॐ नमः भगवते वासुदेवाय!
 यही जप मानसिक अथवा वाचिक चलता रहना चाहिए!




आज के दिन  कितने ही लोग जगह-जगह प्याऊ लगाते है!राहगीरों को ठंडा और मीठा जल पिलाते है!कुछ ऐसे भी नारायण सेवा-स्मरण करते है!

निर्जला एकादशी के बारे विस्तृत रूप से पढने के लिए आप यहाँ देख सकते है!

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,

बुधवार, 19 जून 2013

विवादित धारावाहिक "जोधा-अकबर" पर प्रतिक्रिया......(कुँवर जी )

 जी टीवी पर दिखाए जाने वाले विवादित धारावाहिक "जोधा-अकबर" पर अपनी प्रतिक्रिया जी टीवी तक सीधी पहुंचाए!
 पता  लगते रहना चाहिए कि  वो क्या दिखा रहे है उसका इस देश पर, समाज पर, इतिहास पर  और उनकी साख पर क्या प्रभाव पड़  रहा है!


प्रतिक्रिया देने के लिए यहाँ क्लिक करे!

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर  जी

सोमवार, 17 जून 2013

"जानवर" ......(कुँवर जी)

 एक बहुत  ही आधुनिक लड़के का विवाह कुछ पुरानी विचारधारा और कम अंग्रेजी भाषा-संस्कृति की जानकार लड़की से हो जाता है!
लड़की बहुत सीधी सी थी!पुराने धारावाहिकों में जो पत्नी अपने पति को संबोधित करती वही संबोधन उसे स्मरण में थे,अन्य नहीं!
उसका पति आया और बड़े प्यार से उसे पुकारा!अब लड़का थोडा आधुनिक तो था ही साथ अंग्रेजी भाषा और संस्कृति को दर्शाने वाला भी था!उसने बड़े ही प्यार से अपनी पत्नी को आवाज लगाई... जान!
अब लड़की को "जान" की उम्मीद तो कतई नहीं नहीं थी!वो बेचारी सोचती-विचारती चुप रही!लड़के ने फिर अपना पूरा प्यार उड़ेलते हुए आवाज लगाईं... "जान, तुम बोलती क्यों नहीं!"
लड़की बेचारी असमंजस में.... एक तो घूंघट निकाले हुए थी सो अब ये भी पक्का नहीं कि उसे ही बुलाया जा रहा है अथवा तो किसी और को!
अब लड़के का सब्र भी थोडा उखाड़ता सा प्रतीत हुआ! उसने लड़की का हाथ पकड़ते हुए अपना समस्त प्यार घोलकर फिर कहा.. जान!
अब लड़की ने भी  उतने ही, नहीं उस से भी ज्यादा प्यार सहित उत्तर दिया.... "जानवर"!

(बहुत पहले सुनी हुई एक बात!)

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,

बुधवार, 29 मई 2013

हिंदी और हिन्दी में शुद्ध रूप कौन सा है!

हिंदी और हिन्दी में शुद्ध रूप कौन सा है!
मुझे हिन्दी सही लगता था आज तक! अभी एक सरकारी साईट पर हिन्दी दिवस के अवसर पर लिखा गया सन्देश पढ़ा!उसे पढ़ कर मै भ्रमित सा हो गया हूँ!हिंदी और हिन्दी दोनों शब्दों का प्रयोग इसमें हुआ है,ज्यादा जोर हिंदी पर है!
सामान्य स्तर पर ऐसी त्रुटियाँ साधारण लग सकती है,पर राष्ट्रीय स्तर  और एक सरकारी  तौर पर ये एक अपराध ही गिना जायेगा,गिना जाना चाहिए! 

उस राजपत्र को आप यहाँ देख सकते है

इस पत्र से स्पष्ट दिख रहा है कि मन्त्रालय ने कैसी और कितनी शुभकामनाये दी है हिन्दी दिवस पर!  क्या ये चिन्ताजनक नहीं है कि राष्ट्रीय भाषा को सरकारी मन्त्रालयो में ही गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा! 

जय हिन्द, जय श्रीराम!
कुँवर जी,

मंगलवार, 28 मई 2013

ये इमानदारी बढ़ाने वाली दवाई सच में कही मिलती है क्या...?(कुँवर जी)



आज जहा देखो वही भ्रष्टाचार, कपट, झूठ और बेईमानी.... बस सब यही दिखता है! कहते है पहले ये सब गुण "किसी अज्ञात डर" से कही कोने छुप कर रहते थे! यदा-कदा ही समाज में दिखने को मिलते थे!कही दिख गए जिसके संग तो उसे शर्मिंदगी भी महसूस होती दिखती थी!
परन्तु आजकल स्थिति इसके उलट होती जा रही है!ये सब गुण ही आजकल ज्यादा दिखाई दे रहे है!वो "अज्ञात" अज्ञात सा ही हो गया है!उसका डर भी अज्ञात ही बताया जा रहा है!
 

इमानदारी जैसे गुण लुप्त प्राय दिखने लगे है!लुप्त नहीं हुए है, ऐसा दिखने लगा है! एक तो  इमानदारी बेचारी अकेली पड़ गयी और वो दुसरे गुण कई सारे इक्कठे हो गए!
 

अब वो अज्ञात तो मानो गया! पर समस्या अभी भी ज्यू की त्यू खड़ी दिखाई देती है! ये सारे गुण जो कि समाज में अव्यवस्था पैदा करते है,असंतुलन पैदा करते  बढ़ते हुए ही दिख रहे है!
 

आज के शरीर विग्नानीयो ने कोई ऐसी दवाई तो बनाई ही होगी जो ऐसे गुणों को कम करके इमानदारी,सद्भावना और भाईचारे जैसी भावनाओं को बढ़ा दे!

कोई ऐसी मशीन अथवा कुछ भी चीज खोज ली गयी होगी जो प्राणी  स्वभाव या तो मानव स्वभाव को समझ के नियंत्रित कर दे!उसे समाज के हित के हिसाब से ही व्यवहार करने दे!

हो सकता हो कि  ये सब चीज़े (दवाई,मशीन) बहुत महँगी होगी जो अब तक मार्किट में नहीं दिखी! या फिर ये भी हो सकता है कि सरकार ने  ही रोक लगा दी हो इन पर…. सत्ता का सवाल है भई !
कोई दवाई या मशीन नहीं तो क्या हुआ….!क़ानून तो बना ही रखा है, जनता पर लागू  भी है!

 क़ानून..... नहीं; 
ये तो होने के बाद वाली वयवस्था है! और फिर वही बात अब ज्ञात का डर दिखाया जा रहा है! कोई ऐसा इलाज जिसमे डर  वाली भावना ही ख़त्म हो जाए !
होगा तो जरूर!

ये इमानदारी बढ़ाने वाली दवाई सच में कही मिलती है क्या...?
जय हिन्द, जय श्रीराम,
कुँवर जी,

गुरुवार, 23 मई 2013

सुनिये……. ' उस' का प्रमाण है आपके पास… ?(कुँवर जी)

एक आदमी करहाता हुआ सा, लगभग झुका  हुआ धीरे-धीरे एक चिकित्सक महोदय के पास पहुंचा!चिकित्सक ने देखा आदमी तो बहुत परेशां है!तुरंत उसको अपने पास बुलाया,पूछा कि क्या बात हुयी है,इतने परेशान क्यों हो?
वो आदमी अपनी कमर पर हाथ  रखता हुआ बोला ," मेरी पीठ में दर्द है!
चिकित्सक- अच्छा; कुर्ता  ऊपर उठाओ!
मरीज ने अपना कुर्ता ऊपर उठाया, चिकित्सक ने पीठ पर हाथ फिराया और कहा- नहीं;दर्द नहीं है!
आदमी ने कहा साहब दर्द तो है,तो चिकित्सक पीठ को सूंघने लगा!
आदमी-" ये क्या कर रहे हो साहब?"
चिकित्सक-"दर्द को सूंघने की कोशिश कर रहा था!"
आदमी-"साहब क्या सूंघने से  पता चलेगा?
चिकित्सक-अच्छा! चलो चाट कर देख लेता हूँ!
आदमी-  साहब...?
चिकित्सक-अच्छा चलो लेट जाओ, चिकित्सक ने अपना कान मरीज की पीठ पर रख दिया,स्टेथोस्कोप मँगा लिया...गौर से सुना और फिर कहा - नहीं दर्द है ही नहीं!
आदमी- साहब दर्द तो है,मै मरा जा रहा हूँ दर्द से!
चिकित्सक- कोई प्रमाण लाओ दर्द का,तो माने! जो है वो दिखना चाहिए,उसे हम छूकर जान पाए,उसे सुन पाए अथवा तो कोई स्वाद ही हो उसका...! किसी तरह तो उसका पता चले!
आदमी- पता मुझे चल रहा है,मै दर्द से मरा जा रहा हूँ!
चिकित्सक- नहीं आपका कहना ही प्रमाण नहीं हो सकता!आप ठीक है!कोई दर्द नहीं है!
आदमी- पर दर्द तो.....
चिकित्सक बीच में टोकते हुए- प्रमाण.....??
आदमी बेचारा चुप,अब क्या करे,कैसे दिखाए दर्द का प्रमाण!

अब वो लगा वही चक्कर काटने, एक तो दर्द ऊपर से जिसके पास वो आस लेकर आया था वही कह रहा है कि कहा है दर्द ....?
अब आदमी खामोश चिकित्सक को देखता जाए,चिकित्सक कंधे उचका कर इशारा करे दर्द है ही नहीं, है तो प्रमाण दिखाओ!
अब तो जी हो गयी हद,जैसे ही चिकित्सक उस आदमी के पास से गुजरा, आदमी ने न चाहते हुए भी चिकित्सक की पीठ में एक जोरदार घूंसा जड़ दिया! अब तो वो चिकित्सक दर्द से कराहे, सभी चेले-चपाटे चिकित्सक के पास  एकत्रित  हो गए!चिकित्सक चिल्लाये मै मरा , दर्द हो रहा है!मै मरा ,दर्द हो रहा है!
तब आदमी के चेहरे पर मुस्कान आई , वो बोला - साहब,किधर दर्द हो रहा है,

चिकित्सक- यहाँ पीठ में!
आदमी - दर्द दिखाई नहीं दिया कही,आओ जरा समीप आओ,सूंघ कर अथवा चाट कर देखू अथवा तो  छूने से कुछ पता चले!
अब चिकित्सक आदमी को चुपचाप देखे जा रहा है!



ये कहानी टाईप की घटना कही कभी सुनी थी,तब इसे किसी और तरह से सुना था! आज अपने शब्दों में यहाँ प्रस्तुत किया है!हालांकि मूल कहानी में कुछ बदलाव हो गए है पर इसका उद्देश्य अभी भी वही  है जो तब था!
आपको नहीं लगता ऐसी कुछ चीजे है जो बस स्वयं के अनुभव का विषय है! आप कभी विचार करना क्या कोई अनुभव है आपका ऐसा जिसको आप शब्द और आकार में न बाँध पाए हो!हालांकि आप हर एक अनुभव को प्रमाण रूप में कोई शक्ल देने के हिमायती हो पर इस से आपके उस अवर्णनीय अनुभव पर तो कोई फर्क नहीं पड़ता !


एक छोटी सी बात… आप मौन एकांत में खड़े है,आप मन-मन में कुछ बोल रहे है, गुनगुना रहे है अथवा तो सोच रहे है…. इस बात का किसी और को क्या प्रमाण देंगे आप!जबकि बोल तो आप रहे थे!

अब  आपने गुड खाया है,मीठा आपको लगा है,आप मुझे बताये कि गुड का स्वाद मीठा है, मेरा मुह मिठास से भर रहा है,आपके ऐसा कहने भर से ही मेरा मुह मीठा नहीं हो जायेगा!आप मीठा लिख दो उसको चाटूं  तब भी ये संभव नहीं है!हालांकि आपका अनुभव सच्चा है इसमें कोई दो राय  नहीं है!अब आप कहेंगे कि ये तो गुड खाकर ही हो पायेगा और मै  कहूँ कि नहीं गुड तो मै नहीं खाऊंगा!ये तो कोई भ्रमजाल हो सकता है!आप तो किसी और का बनाया हुआ गुड दोगे .... आदि-आदि! तो आप क्या कहना चाहेंगे मेरे बारे में!
 
आपको नहीं लगता जो ये प्रमाण परम्परा  वाले है या यूँ कहूँ कि जो केवल प्रमाण परम्परा वाले है वो प्रमाणों के भ्रमजाल में फसे हुए है और अपना  समय केवल प्रमाण इक्कट्ठे  में ही गवां रहे है !

अब उस परम तत्व इश्वर का वो प्रमाण मांगते है…. वो स्वयं उस परमशक्ति के होने का प्रमाण नहीं है क्या?



 जय हिन्द ,जय श्रीराम,
कुँवर जी , 

क्रिकेट करे चित्कार.....(कुँवर जी)

क्रिकेट करे चित्कार
अब मेरा खेलना है बेकार!
जब नोटों का मिले हार
तो हर हार है स्वीकार!
खेलने का मिला जो अधिकार
तो खेल से करते व्यभिचार!
जो पहले देख लेते थे आनंद अपार
अब देखना भी उनको लगे धिक्कार!


जय हिन्द,जय श्रीराम,

कुँवर जी,

बुधवार, 22 मई 2013

मौत भी बहला लेगी दिल अपना हमसे

जब तक जिन्दा है तो
जिंदगी के ही मरीज है,
फिर एक दिन मौत भी

बहला लेगी दिल अपना हमसे!

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,
 

मंगलवार, 21 मई 2013

जो था नहीं.....(कुँवर जी)

जो था नहीं,
जो रहेगा नहीं,
वो ही रह कर भला क्या हो जायेगा !
जो रुका नहीं,
जो रुकेगा नहीं ,
 उसके लिए रुक कर भला क्या मिल जायेगा!
पर हम रुक जाते है,
जो है नहीं 
वो ही रह जाते है,
ना  कुछ होता है,
ना कुछ मिलता है,
शेष रह जाता है वही 
जो था ही …। 


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,


शुक्रवार, 10 मई 2013

कोई अपने माँ-बाप को पूज्यनीय माने या न माने, पर जब मुद्दा देश या देश से सम्बंधित हो तो..(कुँवर जी)



कोई अपने माँ-बाप को सम्मान दे या न दे,उनको पूज्यनीय माने या न माने, उस से किसी को क्या लेना-देना हो सकता है भला!पर जब मुद्दा देश या देश से सम्बंधित हो तो सार्वजनिक हो ही जाता है!


पहले ये ऐसी ओछी दुर्घटनाये आतंकवादी बहुल क्षेत्रो में ही देखने को मिलती थी पर इस बार तो सभी सीमाओं को लांघते हुए लोकसभा के अन्दर ही ऐसा हुआ है!लोकसभा अध्यक्ष ने तुरंत इस पर आपत्ति जताई और दुबारा ऐसा न होने की आज्ञा भी दी....

पर उन बुजुर्ग जनाब को तो अपनी कौम का हीरो बनना था!उन्होंने खुले आम ऐलान किया वो आगे भी ऐसा ही करेंगे!अब इस से बढ़कर देश के लोकतंत्र का अपमान और क्या हो सकता है!ये बुजुर्गवार अपनी कौम के हीरो बन ही चुके है!

यदि सही में ये हीरो बन गए है तो क्या ये बात चिंता जनक नहीं है कि वो अब तक लोकसभा के सदस्य है,देश के नागरिक है और देश में अभी तक स्वतंत्र है!और मै देख रहा हूँ कि इन बुजुर्गवार के पक्ष में बहुत से पढ़े-लिखे समझदार कहलाने वाले मुस्लिम भाई भी बिलकुल वही तर्क दे रहे है जो स्वयं इन्होने दिए है!यहाँ मई और अधिक चिंताग्रस्त हो जाता हूँ! क्या मेरी चिंता वाजिब है!मुझे तो लगता है कि वाजिब है पर कई बार जब देखता हूँ कि देश का एक पढ़ा-लिखा वर्ग(जिसमे हिन्दू-मुस्लिम दोनों है) वन्दे मातरम् के महत्त्व पर ही प्रशनचिन्ह लगा रहे है!

कोई कहता है कि ये तो मात्र एक गीत है जिसे आनंद मठ नामक पुस्तक में लिखा गया था,उस से पहले ये राष्ट्र के सम्मान का विषय नहीं था,तो अब कैसे हो गया..?

उनकी ही बात को सही माने तो.... १९४७ से पहले तो देश का कोई लिखित संविधान भी नहीं था!कही नहीं लिखा था कि हिन्दुस्तान एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है!तब तक वो एक हिन्दू राष्ट्र ही था!बिना किसी विवाद के!

वो कहते है कि जो इस गीत को राष्ट्र के सम्मान का विषय बता रहे है उन्हें आनंद मठ का पता भी नहीं होगा,किसी ने इस पुस्तक को पढ़ा भी नहीं होगा!

अरे नहीं पता है हमें आनंद मठ का, नहीं पढनी है हमें ये पुस्तक!इस गीत को राष्ट्रिय गीत आनंद मठ ने नहीं बनाया है,ये गीत अमर किया है शहीद भगत सिंह, अशफाखुल्लाह खान जैसे अमर क्रांतिकारियों ने गाकर!मेरे देश के संविधान ने!



वो कहते है कि हर किसी को तो ये भी नहीं पता कि ये राष्ट्रिय गीत है या राष्ट्रीय गान!अरे क्या फर्क पड़ता है इस से.... राष्ट्रिय गीत और राष्ट्रीय गान के प्रति सम्मान होना चाहिए मन में बस! और यदि सम्मान मन में है तो क्यों न वो बहार भी दिखे,क्यों ना  हो व्यवहार में, जो उस से किसी का कैसा भी नुक्सान नहीं हो रहा हो तो!



क्यों सभी हिन्दू देश के संविधान को मानने के लिए विवश है की अब हिन्दुस्तान हिन्दुस्तान नहीं रहा...भारत अथवा तो इंडिया हो गया है!मुझे लगता है कि ये देश के प्रति सम्मान और मातृभूमि को पूज्यनीय मानने का ही परिणाम है!माना हमारे देश में मुस्लिम बहार से आये हुए है पर जो मुस्लिम आज हमारे देश में है उनकी मातृभूमि तो ये मेरा प्यारा और वन्दनीय भारत महान ही है!मुझे इसमें कोई रूचि नहीं कि इस्लाम क्या कहता है और क्या नहीं कहता है!लेकिन मेरे देश और मातृभूमि से सम्बंधित सभी विषयो पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने में मुझे पूरी रूचि है और ये मेरा अधिकार भी है जो मेरे देश का संविधान मेरे सहित देश के हर नागरिक को देता है!

मेरे देश का संविधान सभी को सम्मान देने या न देने की स्वतंत्रता तो देता है पर किसी को भी किसी भी प्रकार से किसी का भी अपमान करने कि स्वतंत्रता तो कतई नहीं देता!और एक अच्छे खानदान के संस्कार भी ऐसी ही प्रेरणा देंगे!और जो संविधान एक बहार से आये हुए अतिथि को देश का ही सामान नागरिक बनाने का अधिकार दे रहा है उस लोकतांत्रिक संविधान का ही लोकतंत्र के मंदिर में ही(लोकतंत्र की मस्जिद इस लिए नहीं क्योकि इस्लाम में लोकतंत्र मान्य नहीं बताया गया है) सार्वजानिक रूप से अपमान किया जा रहा है! और ये अपमान किसी गुंडे-मवाली, आतंकवादी ने नहीं किया है बल्कि लोकतांत्रिक विधि से चुने गए लोकसभा सदस्य के द्वारा हुआ है!इस पर भारत सरकार को शीघ्र ही कोई कठोर कदम उठाना चाहिए!और यदि सरकार कुछ नहीं करे तो देश कि जनता को ही सोचना पड़ेगा और सोचना चाहिए कि किसे लोकसभा अथवा लोकतंत्र के मंदिर में भेजना है और किसे नहीं भेजना है!





कृप्या सच्चे मुसलमान भाई इसे ना पढ़े! मै नहीं चाहता मेरी वजह से किसी मुस्लिम भाई के इस्लाम का उल्लंघन हो!लेकिन जवाब कौन देगा भाई?


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,

बुधवार, 1 मई 2013

एक लोटा पानी और दो मुट्ठी चावल.....






थोडा रूक कर सोचे तो देखेंगे कि हम इस तरह भी तो भगवद सेवा कर सकते है!हम मानव तो अपनी जरुरत की चीजो का संग्रह कर के रख ही लेते है और जितनी जरुरत होती है उस से कहीं अधिक ही संग्रह कर लेते है!पर ये बेजुबान,निरीह पशु-पक्षी.... अभी भूख लगी तो कही जाकर खा लिया और प्यास लगी तो जो पानी कही भी उपलब्ध हो गया पी लिया! कल तो बहुत दूर है,दूसरी बार खाने-पीने के लिए भी ये संग्रह नहीं करते!

यदि हम देखे हमारी संग्रह की आदत से हम इनको भी लाभ दे ही सकते है!जो हम अपने लिए संग्रह कर रहे है उसमे से कुछ हिस्सा इनके लिए निकाल ले,और रख दे कही ऐसी जगह जो इनकी पहुँच में हो सरलता से,और सुरक्षित भी हो!और सोचो कितना हमें इनके लिए निकालना है,बहुत कम मात्र ही इनके लिए पर्याप्त है!




एक लोटा पानी और दो मुट्ठी चावल,अनाज या जो भी अन्न हमें आसानी से मिल जाता हो!बस इतने से ही हम अपनी भगवद सेवा कर सकते है!हाँ,बदले में इन्हें खाने-पीने वाले पंछी आपको धन्यवाद बोलने तो नहीं आयेंगे पर आपको अनुभव जरूर होगा कि आपको धन्यवाद मिल गया है!अरे सोचना कि नहाने में एक लोटा पानी कम प्रयोग कर लेंगे, मंजन में थोडा कम पानी खर्च लेंगे.... और कितनी ही ऐसी गैरजरूरी पानी की बर्बादी को कम कर के हम ये एक लोटा पानी रोज निकाल ही सकते है और जिनमे हमें कुछ कमी भी महसूस नहीं होगी उस एक लोटे पानी की!

जरुरत है तो बस एकबार सच्चे मन से संकल्प करने की कि अब मुझे हर रोज एक लोटा पानी और दो मुट्ठी चावल पंछियों के लिए निकालने ही है और छत पर,झांकी में या कही भी उनकी सरलता से पहुँच वाली जगह रखनी है......बस! फिर तो भगवान् भी आपको नहीं रोक सकता उन पंछियों के लिए ऐसा करने से!


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

हिन्दू होकर हिन्दू दिखने में जो शर्माता है... (कुँवर जी)

हिन्दू होकर हिन्दू दिखने में जो शर्माता है...
बाप के खून और माँ के दूध को लजाता है...

जय हिन्द, जय श्रीराम,
कुँवर जी,

रविवार, 13 जनवरी 2013

हमें शान्ति चाहिए...,(कुँवर जी)

हम कहते है हमें शान्ति चाहिए,
वो बोले
हमने इतना बेआबरू  तुमको  किया,
कभी छाती की छलनी
अभी सर धर लिया,
तुम अब भी शान्त हो
अब इस से ज्यादा शान्ति का भी क्या करोगे...
शान्ति नहीं तुम्हे शर्म चाहिए,
हमने कहा
शर्म तो चली गयी बेशर्म हो...
चाहे कुछ भी हो अब शान्ति ही अपना धर्म हो...
तो हमें शान्ति चाहिए...

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

इतनी मजबूर तो नहीं जिंदगी....(कुँवर जी)

क्यूँ घुट रहे हो पल-पल,
कोई क़सूर तो नही जिंदगी!

खोलो पलके हाथ बढाओ,
इतनी भी दूर तो नहीं ज़िन्दगी!

माना ज़ख्म है कई तो क्या,
कोई नासूर तो नहीं ज़िन्दगी!

रोते हुए को हँसी ना दे पाए जो,
इतनी मजबूर तो नहीं जिंदगी!

जय हिन्द, जय श्रीराम,
कुँवर जी,

लिखिए अपनी भाषा में