शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

क्या पता कौन-कहाँ घात लगाए बैठा हो!...(कुँवर जी)

दिन में भी मध्यरात्रि  सा सन्नाटा पसरा था!सूरज जैसे कोई नाराजगी दिखा रहा हो!हवा भी खीजी सी पड़ी थी,तपी हुयी चीखती-चिल्लाती बस वही जहाँ-कहाँ  धुल उडाती सी जलाती फिर रही थी!ऐसे में कबूतर का एक परिवार जिसमे दो व्यस्क और दो बच्चे थे,उड़ने का साहस दिखा रहे थे!
जीने की चाह भी मरने को मजबूर कर देती है!बैठे रहते तो भूख-प्यास से मरते और उड़ रहे है तो गर्मी-लू से मरने का अंदेशा, पर उड़ेंगे तो शायद  कही कुछ मिल जाएगा खाने-पीने को बस यही आस झेल रही थी गरम हवा को भी!
आखिर उनकी हिम्मत और मेहनत ने एक छत पर कुछ आस दिखाई!एक कोने में एक टोकरी किसी लकड़ी के सहारे कुछ ऐसे खड़ी की हुई  थी कि उसके निचे रखे हुए पानी के बर्तन पर धुप न पड़े और उसका पानी गर्म न हो!उसे देख कबूतरों की जान में जान आ गयी!और अधिक वेग से वे वह तक पहुंचे!वह पहुँच कर देखते है कि कुछ चावल भी वहा पड़े हुए है
कोटि-कोटि आशीष उनके तन-मन से फूटने लगे उस चावल और पानी को रखने वाले के प्रति !व्यस्क कबूतर ने मन में विचार किया कि थोडा पानी पी  और कुछ चावल खा लूँ  और थोडा सुस्ता लूं,फिर थोड़ी जान आ जाएगी इस लू में फिर से उड़ने की!तब अपने अन्य साथियों को भी यही बुला लाऊंगा!

चारो जीव परमात्मा और उस दाना-पानी को रखने वाले का धन्यवाद करते हुए अपनी भूख-प्यास को शांत करने लगे!वो  सोच रहे थे कि  धर्म अभी भी जिन्दा है, सबका हित चाहने वाले है अभी भी!हम जैसे निरीह बेजुबानो की परवाह करने वाले है धरा पर!

तभी  जैसे कोई  भूचाल सा आया हो,  जिस लकड़ी के सहारे वो टोकरी खड़ी थी…… अचानक ...... झटके से सरकी , वयस्क कबूतर तो उस हलचल को भांप गए थे!जब तक टोकरी गिरती तब तक दोनों बहार थे!पर दोनों बच्चो को अभी इतना अनुभव नहीं था .... सो जब तक उनकी समझ में कुछ आता तब तक वो  घुप्प अँधेरे में आँखे फाड़ रहे थे, बेचैनी में टोकरी से सर टकरा रहे थे!

जिस लकड़ी के सहारे वो टोकरी खड़ी  थी उसके निचले सिरे से एक बहुत महीन सा धागा बंधा हुआ था,जिसे वहाँ  से थोड़ी दूर कोने में अजित और सलिल पकड़े बैठे थे!दोनों पांचवी कक्षा में पढ़ते थे,गर्मियों की छुटियाँ चल रही थी!खली दिमाग शैतान का घर!दोनों को शरारत सूझी और कोई पंछी पकड़ने की चाह ने ये पूरा ताम-झाम जमवा दिया!दोनों ख़ुशी से किलकारियां मारते हुए, उछालते हुए आए!दोनों बहार बचे कबूतर फर्र्र से उड़ कर दूर जा बैठे और अपने दोनों नन्हे मुन्नों को देखने की आस लिए बैचनी से इधर-उधर चक्कर काटने लगे!अब उन्हें कोई लूं-गर्मी अथवा धूप की सुध नहीं रही थी!
दोनों मन में प्रार्थना कर रहे थे कि अभी बस वो दोनों उस टोकरी से कैसे भी निकल आये बस!फिर तो अपने कुटुम्ब में जाकर सबको यही बताना है कि यहाँ मत आये... यहाँ क्या ऐसी किसी भी जगह जरा सोच-समझ कर ही जाए!क्या पता कौन-कहाँ घात लगाए बैठा हो!

  

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,

मंगलवार, 2 जुलाई 2013

हमें जरुरत क्या है अपने दैनिक जीवन में भगवान् की....?(कुँवर जी)

श्री हरी!ॐ !
हमें जरुरत क्या है अपने दैनिक जीवन में भगवान् की?उसके अस्तित्व को मानने अथवा न मानने से क्या फर्क पड़ता है हमारे दैनिक जीवन में?
उनका नाम लेने से अथवा स्मरण करने से अथवा उनके अस्तित्व को मान लेने से ही हमारी दैनिक जरुरत पूरी नहीं हो जाती!न ही हमें कोई नौकरी मिलती है, ना रोटी ही मिलती है और ना ही कोई मकान बन जाता है तो जरुरत क्या है उस भगवान् की हमें!भला क्यों मान ले हम उसे कि वो कहीं है भी?
मेरे एक मित्र है,आजकल अमरीका में उनका वास है!इंटरनेट के माध्यम से कुछ चर्चा चल रही थी तो कुछ ऐसे ही भाव वो जता रहे थे!
स्पष्ट शब्दों में वो जानना चाह रहे थे कोई "वैलिड" सा कारण जिसके आधार पर हम परमात्मा का होना मान ले!अब इसके गूढ़ प्रशन पर मुझे मौन ही साधना पड़ा!

अब कुछ पुरानी सुनी हुयी बाते स्मरण में आ रही है!उसको तो पता नहीं इस से संतुष्टि मिलेगी या नहीं पर मै  जरुर संतुष्ट हो जाता हूँ ऐसी बाते स्मरण कर के!

पढ़ा था कही.. कहाँ पता नहीं!

हम जब कहीं घूमने  जाते है तो अपने साथ रुपये-पैसे जरूर रखते है!हमारा ध्यान के इन पर ही केन्द्रित  होता है सबसे ज्यादा!हालांकि हम इन्हें खा नहीं सकते,ओढ़-पहर नहीं सकते पर सबसे अधिक ध्यान  पैसो पर ही होता है कि इनकी वयवस्था हमारे पास बनी रहे!और इन्हें पाने के लिए बहुत अधिक मेहनत भी
  करनी पड़ती है !
हालांकि खाना इस से ज्यादा जरुरी विषय है परन्तु हम उतना खाने कि चीजो पर ध्यान नहीं देते जितना पैसे को महत्त्व देते है!थोडा बहुत खाने की चीजे भी ले लेते है!हालांकि हम बिना खाए भी कई दिन रह सकते है फिर भी खाने की कुछ चीजे हम साथ लेके ही चलते है!

खाने से थोडा ज्यादा जरुरी है पानी!पर उस पर खाने से भी कम ध्यान दिया जाता है जाते हुए हम सोचते है कि पानी तो कही भी आसानी से उपलब्ध हो जाएगा!उपयोग के हिसाब से पानी खाने से कही अधिक बार हम प्रयोग करते है पर पानी की उपलब्धता पर खाने से कम मेहनत करनी होती है/करते है!
अब पानी से भी अधिक महत्वपूर्ण है हवा!इसके विषय में हम सोचते भी नहीं!कभी सोचते ही नहीं कि कल के लिए कुछ हवा रख ले!या कही जा रहे है तो अपनी हवा संग ले चले!
अथवा तो ये कहे कि कभी कुछ थोडा सा भी श्रम करने की जरुरत नहीं पड़ी है जीने लायक हवा को पाने के लिए!बिना कुछ किये ही ये हमें सर्वत्र उपलब्ध होती है!


क्या ये एक "वैलिड"  कारण नहीं है उसके होने का कि हमारे जीने के लिए सभी जरुरी चीजे हमें बिना किसी विशेष श्रम के उपलब्ध हो जाती है!इन सब चीजो की व्यवस्था वो पहले ही कर देता है!

यहाँ बस यही स्पष्ट करने की कोशिश थी कि जो चीज हमारे जीने के लिए, जीवन के लिए जितनी महत्वपूर्ण है, अथवा तो ये कहे  कि जीव के जीने के लिए जो चीज जितनी ज्यादा जरुरी है वो उसे उतने ही कम श्रम और अधिक आसानी से उपलब्ध हो जाती है!इसी आधार और अनुपात पर इन चीजो के लिए हमारे मन में चिंता-जरूरत  उत्पन्न होती है!

इसी तरह खाना-पानी-हवा को भी जो प्रयोग कर रहा है, जिसके बिना हम एक क्षण भी नहीं रह सकते!खाने के बिना भी हम कुछ दिन रह सकते है,पानी के बिना भी हम कुछ दिन जी सकते है और हवा के बिना भी हम कुछ समय तक जीवित रह सकते है पर जिस कारण से हम इन सबका प्रयोग कर पाते है वो आत्मा, उस चैतन्य स्वरूप का तो हम कभी ख्याल ही नहीं करते!पर वो हवा से भी अधिक समीप होता है हमारे!उसके बिना तो एक निमेष  भी शरीर जीवित नहीं रह सकता पर उसके लिए तो सांस लेने जितना श्रम भी हम नहीं करते!हमें उतना करने की भी जरुरत महसूस नहीं होती!
हमें जरूरत ही अभाव में होती है!उस परमात्मा का कभी अभाव ही हमें नहीं होता तो जरुरत भी महसूस नहीं होती!
हमें जरुरत ही नहीं है उसका होना मानने की,क्योकि कभी उसका अभाव ही नहीं है हमारे होने में!

जय हिन्द , जय श्रीराम 
कुँवर जी,
 

 

 

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